कभी अजीब कश्मकश होती है भीतर। किससे कहना चाहते हैं, क्या कहना चाहते हैं, कहाँ जाना चाहते हैं कुछ नहीं मालूम होता। कुछ दिन आते हैं ऐसे भी। निरर्थक, निरुद्देश्य भटकन भरे दिन।
ऐसे ही एक अजीब, दुविधा भरे दिन नदी के बहाव के साथ दूर निकल जाओ। न कहीं पहुँचने की चाह हो, न ठहरने की। बहते रहो जल के बहाव के साथ। विचरते रहो अपने विचारों के साथ।
ये अलग बात है कि अंत में हर कोई कहीं न कहीं पहुँच ही जाता है। कुछ न कुछ पा ही जाता हैं। किन्तु उलझन यह कि क्या वह मिलता है जिसकी तलाश में ये भटकन थी, ये व्यग्रता थी? इतना आसान नहीं कि हम जो चाहें, जब चाहें वो मिल ही जाए। गर ऐसा हो तो जीवन का आनंद ही क्या।
आनंद और सुकून प्राप्त करना हमारे सफ़र का शाश्वत सत्य होता है। हमारी भटकन का अंतिम सत्य भी। हम सभी ऐसे ही किसी न किसी अज्ञात सफ़र के मुसाफिर हैं। इसी पर एस डी बर्मन ने बखूबी कहा-
यहाँ कौन है तेरा मुसाफिर जाएगा कहाँ
कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फ़ानी
पानी पे लिखी लिखाई
है सबकी देखी, है सबकी जानी
हाथ किसी के ना आई
कुछ
तेरा ना मेरा
मुसाफिर जाएगा
कहाँ...