Monday, April 27, 2015

Que Sera, Sera - ( Whatever Will Be, Will Be ) - ( जो होना है वो होगा ही )


पहाड़ों की सुबह बेहद खूबसूरत होती है। धीरे -धीरे पहाड़ियों के पीछे से उगता सूरज, थोड़ी ठंडाती हवा और पंछियों की विभिन्न प्रजातिओं का कलरव। पच्चीस अप्रेल का सुहावना दिन था। मैं न जाने कब तक लॉन में बेवजह सी बैठी रही। जल्दी करने वाला काम कुछ था नहीं। अन्य दिनों की अपेक्षा शनिवार थोड़ा आलसी दिन होता है। उस दिन भी सभी काम मंथर गति से हो रहे थे। 

घर पर सभी अपने -अपने सुबह के काम में व्यस्त थे। मैं तैयारी कर रही थी। मुझे एक बजे मित्र नेहा के साथ कहीं जाना था। अचानक.....धरती सिहर उठी। कांप उठी। क्या कष्ट रहा होगा उसे ? कोई नहीं जनता। धरती की तड़प थी या फिर उसका गुस्सा ?.......बहरहाल जो भी था उसका कम्पन सभी को दहशत से भर गया। सभी अपने हाथ का काम छोड़ कर भयमारे से शोर मचाते बाहर दौड़ गए। जिस घर में अभी तक आठ लोग थे अब वह खाली हो गया। 

मैं तटस्थ होकर बैठी ही रही, स्तब्ध। सब कुछ होते हुए महसूस करती रही। सभी को अपनी जान से कितना मोह होता है। है न ? मुझे भी बहुत है। जीवन से खुश हूँ, संतुष्ट हूँ। फिर मैं जान बचाने क्यों नहीं दौड़ सकी? बाहर सभी बदहवास से शोर मचा रहे थे और मैं भीतर अकर्मण्य सी वहीं सोफे पर बैठी हुई उसको महसूस करती रही। शायद मेरी पैदायशी बायोलॉजिकल घड़ी खराब है। मुझे जल्दी से डर या घबराहट नहीं होती। 

कुछ पलों में जब धरती का वेग थम गया, तब सोचा। जहाँ भी इसका इपिसेंटर रहा होगा या रब बस वहां खैरियत हो। तबाही न हो, कोई बेघर न हो और किसी के अपने न बिछडें। थोड़ा चिंतित होकर ताजा हालात जानने के लिए मैंने टेलीविजन खोला। 

क्या भावुकता और परेशानी के समय सभी इंसान एक जैसे संवेदित हो जाते हैं ? रोज़ जरुरत से ज्यादा ऊंचा बोलने वाले अर्नब का सुर थोड़ा नीचे था। चेहरे पर विषाद साफ़ था। अपने काम पर पूरी मुस्तैदी से डटा हुआ। टेलीविजन के जरिए देश को अपने रिपोर्टर्स से जोड़ने की लगातार कोशिश करता हुआ। उनके बाइट्स पकड़ता हुआ। हेल्पलाइन नंबर खोजता हुआ। अर्नव का ये रूप मुझे खूब अच्छा लगा। अलग -अलग चैनल पर इस तरह की मदद करते अन्य लोग भी लगे होंगे। कुछ अच्छे, मेहनती और ईमानदारी से अपने कार्य करने वाले जर्नलिस्ट मुझे सेना के जवानों से लगतें हैं जो देश रक्षा के लिए हरदम तैयार रहतें हैं। 

कुछ देर बाद आपस में चिंता, डर, परेशानी बांट कर अब बाहर गए लोग भीतर आ गए। सीमा मुझे देख कर हैरत से चिल्लाई। " दीदी आप बाहर नहीं आए?.....यहीं बैठे थे ? आप भी अजीब हो……देखिए साहब इनको....." 

" इनको कोई नहीं देख सकता सीमा.....करतीं वही हैं जो इनका मन करता है। तू जा, काम कर।" पतिदेव नाराज थे। उनके कहने के बावजूद भी मैं बाहर नहीं गई थी। 

" हम दोनों ही जिन्दा हैं न सीमा.....फिर ?...चलो एक चाय दे जाओ…बड़ी मेहरबानी होगी...." भावुकता वश मेरे आखिरी के शब्द टूटने लगे। टेलीविजन पर दिल दुखाने वाली ख़बरें आने लगीं थीं। मेरे चश्मे पर धुंध छाने लगी। वैसे भी देखना भर ही था। कर क्या सकते थे? वहां बैठ कर किसी तरह की मदद के काबिल थे नहीं। टेलीविजन का रिमोट पतिदेव के हाथों में थमा कर मैं दूसरे कमरे में चली गई। ध्यान आने पर प्रदीप के उस गीत की सार्थकता महसूस होने लगी। 


" ऊपरवाला पासा फेंकें / नीचे चलते दांव / कभी धूप कभी छांव "  


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