कभी खोलती हूँ जब
जज्बातों की पोटली
तब निकलतें हैं उसमे से
गांव कस्बे शहर
वहां के पेड़ नदी हवा
सोचों की बारिश होने पर
यादों की खेती लहलहा उठती है
तुम्हारे ख़याल की
एक हल्की सी झलक दमक उठती है
तुम्हारा हंसना तुम्हारा बोलना
मुझे अच्छा लगता है
मैंने कहा था न तुमसे
कभी बैठेंगे चुपचाप
गुलमोहर के दरख़्त तले
और करेंगे ढेर सारी बातें
मन ही मन
जिसे सुन सकेंगे सिर्फ हम दोनों
देखो तो गुलमोहर फिर से
अपनी सुर्ख ताब बिखेरने लगा है
बताओ प्रियवर
तुम कब आओगे?