कभी कभी न जाने
क्या लिखना चाहती हूँ और
क्या लिख देती हूँ
कहानी बुनते हुए
कविता बन जाती है और
कविता लिखते हुए कहानी
जब लिखना चाहती हूँ
उलझन विरक्ति और खामोशी
तब लगता है अनजाने में
लिख डाला है खुद को ही
न जाने कब बनेगी
एक सुंदर आवरण और
सार्थक शीर्षक वाली
सम्पूर्ण रचना
अक्सर पूर्णता की तरफ
अग्रसर होते शब्द
फिसल जाते हैं एक ओर
और गडमड होती फिर से
कविता बन जाती है कहानी
और कहानी बन जाती है
उलझी हुई कविता