गुरुदेव रवीन्द्र ठाकुर की कविता की एक पंक्ति मुझे हमेशा याद रहती है। बेहद
व्याकुलता से भरी उनकी इस कविता की वह पंक्ति है। "लिख डाल
/ मुक्ति पा ले"
कभी - कभी हमारा मन भी बहुत आकुल -व्याकुल हो जाता है। गोल -भूगोल। ऐसे
वक्त में स्वयं अपने मन का भेद लेना भी बेहद कठिन हो जाता है। कहाँ क्या कष्ट
है समझ नहीं पाते। इसी छटपटाहट को उस वक्त यदि कागज पर उतार दें और कुछ समय
बाद पलट कर देखें कि क्या विचार चस्पां कर दिए थे तो मन हैरान हो जाता है। इतना सब
कुछ भीतर इकठ्ठा था? कब से? कैसे? कहाँ से आया यह सब?
अनंत सड़क पर चलने जैसे हालात हो जातें हैं। जिसका न आदि न अंत। आजकल के
हालात में इस वजह -बेवजह की दौड़ ने हमें न जाने कहाँ पहुंचा दिया है? दिशाविहीन
मन हँसता, मुस्कराता, भटकता, सिमटता, सहमता, चहकता, कसमसाता और भी न जाने क्या
-क्या करता है? न जाने बे पर की, कहाँ तक की उड़ान भर आता है।
उन पलों में यह मन मुक्ति की चाह लिए विचारों के अथाह सागर में
तैरने लगता है। फिर कागज के कोरे पन्नों पर मुस्कराता, उत्साहित होता, मायूस
होता, घुमड़ता, कसमसाता और संवेदित होकर बरस जाता है। और तब मिल जाता है
दिल को आराम, संतोष, तृप्ति और सुकून.....
गुरुदेव……मुक्ति का यह मार्ग भी सही सुझाया आपने।