किताबें झांकतीं हैं बंद अलमारी के शीशे से / बड़ी हसरत से तकती
हैं /महीनों अब मुलाकात नहीं होती / जो शामें उनकी सोहबत में होतीं थीं / अब अक्सर
गुजर जातीं हैं / कंप्यूटर के परदों पर
'गुलज़ार'
इ -बुक्स का चलन मुझे
घबराहटों से भर रहा है। लगातार प्रकाश उगलते हुए स्क्रीन पर आंखें जमाएं
रखनी होंगी। चश्में के नंबर में बढ़ोतरी होती रहेगी। अपने आप से पूछती हूँ। आखिर
इससे हासिल ज्यादा होगा या फिर नुक्सान?
कॉलेज पूरा होने के
बाद शहर छूट गया था और उसके साथ ही छूट गए थे बचपन के मित्र। जब सोचा काम
के अलावा बचे हुए समय को किस तरह व्यतीत किया जाए ? जीवन के उस अकेलेपन
को बांटने के लिए मैंने उनका स्थान फिर किताबों को दे दिया। दूसरा शहर इतना
वक्त और अपनापन दे नहीं सका कि नए मित्र बनाए जाएं। लोग आते -जाते रहतें हैं।
उनका आना अच्छा लगता है परन्तु चले जाना कभी बाल सखाओं के छूट जाने के सामान दुखी
नहीं करता। शायद हम महानगरों के चलन में रंग गए। दौड़ती -भागती ज़िंदगी में अपनापन
जताना, स्नेह व आदर देना भूल गए हैं। तब से हमेशा इन्ही किताबों से अटूट
साथ बना रहा। जब मन किया उठा लिया। जहां ले जाना चाहा ले गए। पक्के साथी बन कर यही
रहे ।
किताबों की महक से आज
भी मन आनंदित हो जाता है। किताबें जितनी पुरानी होतीं जातीं हैं उनकी खुश्बू उतना ही
अपनापन देने लगतीं हैं। पढ़ने से पहले मैं जी भर कर पहले उनकी महक
में भीगती हूँ फिर पढ़ना शुरू करतीं हूँ। किसी अति कीमती इत्र में भी वो महक
नहीं जो इन किताबों में बसी रहती है। किताबों से घिर कर बैठने में जो आनंद है
वह और कहीं नहीं। पुस्तकालयों में जाकर देखें। वहां बसी किताबों की महक से और
ज्ञान वर्धक के साधनों को देख कर मस्तिष्क तृप्त
हो जाता है।
सोचती हूँ अब यदि इन किताबों
की जगह इ-बुक्स ले लेतीं हैं तो आने वाली पीढ़ी को कैसे मालूम होगा कि किताबों
की इत्र कैसी होती थी? उनके बीच बैठना क्या अहसास देता था? उनके साथ कैसी अनुभूति
होती थी? उनमें रखे हुए सूखे फूल, पत्ते, मोर पंख, बुक टैग
आदि का किसी बेशकीमती खजाने सा संभालना और वर्षों बाद उनका मिलना और उन्हें देखकर भावुक
हो जाना क्या होता है?
यदि इ बुक्स का चलन जोर
पकड़ा तो हमारी भावी पीढ़ी इन सभी प्यारे से क्षणों से वंचित रह जाएगी। क्या इ-
बुक्स एक अच्छा माध्यम साबित होगा? ये एक ऐसा सवाल है जिसके जवाब का इंतजार धड़कते
दिल से ही किया जा सकता है। गुलज़ार की ही तरह.......दिल थाम के.... हमें
गुलज़ार की ये चिंतित पंक्तियों द्वारा किए गए ईशारे को समझना होगा।
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे / कभी गोदी में लेते थे / वो जो किताबों
में मिला करते थे सूखे फूल और महके हुए रुक्के / किताबें मांगने गिरने उठाने के बहाने
रिश्ते बनते थे / उनका क्या होगा / वो शायद अब नहीं होंगे।
'गुलज़ार '