इस उपन्यास को हिन्द पॉकेट बुक्स ने सन 1966 में
प्रकाशित किया। जब हम पैदा भी नहीं हुए थे अमृता ने किताब लिख दी थी। महान लोग इस दुनिया
में कभी भी चले आतें हैं। इस किताब पर मूल्य अंकित है एक रुपया। तब एक रूपये के कीमत
कितनी रही होगी?
आत्मकथाओं का संकलन मैं बेहद शिद्दत से करतीं हूँ।
यूँ मेरे पास अमृता की 'अक्षरों के साये' और 'रसीदी टिकट' पुस्तकें भी है। किन्तु जो
अपनापन इस 120 पृष्ठों वाले पॉकेट साइज़ उपन्यास 'एक थी अनीता' से है वह अन्य किसी से
नहीं। यह उनकी स्वयं की आत्मकथात्मक कहानी है (कहीं पढ़ा था), पुस्तक से गुजरते हुए
कुछ ऐसा ही महसूस होता है। अनीता, उसका पति, बच्चे और तीसरा शख़्स सागर और फिर इकबाल,
कहानी इन्हीं के इर्द -गिर्द चलती है। इसे मैंने पुस्तकों का समुद्र मंथन करते हुए
अमृत की तरह पाया था।
अमृता प्रीतम का यह नायाब उपन्यास मुझे दरियागंज
के किताब बाजार को खंगालते हुए मिला था। हर रविवार वहां किताबों और लोगों का सैलाब
उमड़ आता था। एक से एक बेशकीमती और अद्भुत किताबें अनायास ही हाथ लग जातीं थीं। ढेर
किताबें लेकर रुमानियत से भरे घर ऐसे आते थे, गोया खज़ाना हाथ लगा हो। अफ़सोस अब न वह
बाज़ार है, न कोई आस। बाज़ारवाद आ गया है। बाज़ार में सब कुछ है। जो होना चाहिए था, वह
नहीं है। लेकिन जो नहीं होना चाहिए था, वह सब कुछ है। भर -भर के है।