राजनीति की बिसात बिछ चुकी है। जनता किसे चुना जाए जैसे असमंजस
से जूझ रही है। प्रत्याशी कौन और कैसा
है ? उसका पिछला इतिहास
क्या बताता है? उसकी फितरत कैसी है ? आदि बातों के आधार पर थोड़ा आंकलन किया
जा सकता हैं।
किरण बेदी अभी मुख्यमंत्री बनी भी नहीं परन्तु कुछ लोग उन्हें
विजयी मान चुके हैं। इसीलिए जनता का वह वर्ग हलाकान हुए जा रहा हैं।
'वे सख्ती कर देंगी, तानाशाही रहेगी, समय की पाबंदी, अनुशासन, सुशासन वगैरह सब
का क्या होगा ? उनके आसन डोलने लगें हैं। उन्हें लेकर अखबार और टी वी वाले भी उत्त्साहित नहीं दीख रहे
हैं। एक बेदाग़ छवि वाली काबिल पुलिस अफसर अपनी अफसरी के चालीस वर्ष की शानदार पारी खेलती हुई जब राजनीति के रास्ते जनता
की सेवा में उतर रहीं हैं, उन्हें स्वीकारा नहीं जा रहा है। अब वे कैसे और
कहां पर गलत हो गईं ?
तब हम छोटे थे परन्तु इतना समझ गए थे कि वे एक दिलेर, सच्ची और
नियमों से चलने वाली महिला हैं। जब 1982 में उन्होंने गलत पार्किंग पर खड़ी
इंदिरा गांधी की गाड़ी को नहीं बख्शा तो बाकी गलत को क्या बर्दाश्त करेंगी।
सभी ने उनके इस कदम की खूब सराहना की थी। उनके इस कृत्य से न जाने कितने ही जोश से
भरे बालक -बालिकाएं देश सेवा के लिए प्रेरित हुए थे। तब से वे सभी महत्वाकांक्षी
लोगों की हीरो थीं। बेशक अब उनसे एक इंटरव्यू के दौरान ये चौकाने वाला खुलासा
हुआ कि उस कार्य को अंजाम उन्होंने नहीं दिया था। बल्कि वह काम सब इन्स्पेक्टर
निर्मल सिंह ने किया था। यह सच्चाई खुलकर तब जनता के सामने आई जब एनडीटीवी
के अनमोल रतन 'रवीश कुमार' अपना माइक थामे चुनावी रैली के लिए दौड़ती हुईं
और समय की पाबंद किरण बेदी से अपने आखिरी सवाल के जरिए न जाने क्या -क्या
सच्चाइयां उगलवाने का प्रयास करते नज़र आए थे। रवीश कुमार का यू एस पी यही है। ( बेशक अब सुनने में आ रहा है कि बेदी ने अपनी किसी किताब में भी यह सच्चाई बयां की
हुई है )
उन दिनों जब ये कार उठवाने वाला कार्यक्रम हुआ
था तब हम गर्व से सर ताने ऐसे चलने लगे थे गोया उनके बाद हमारा ही नंबर आएगा। बाबूजी
भावविह्वल होकर आंखों में नमी लाते हुए कहने लगे थे। " ये हुई ईमानदारी और सच्चाई
से की जाने वाली देश सेवा। बेटा...समझो, सीखो। कौन कहता है बेटियां नाम रौशन नहीं
करतीं……बेटियां तो......." तब हम दोगुने गर्व से उनके होनहार कहे जाने वाले सुपुत्रों
की और देखते थे। ।
एक अन्य अखबार लिखता है उनमें नारी सुलभ कोमलता नहीं है। अरे भाई
तभी तो उन्होंने देश सेवा करने के लिए पुलिस महकमे को चुना। देश
की पहली महिला पुलिस अफसर। उस समय पुलिस सेवा में जाने का दम कितनी
महिलाओं में था?
दूसरा अखबार लिखता है। 'वे किसी से निकटता स्थापित नहीं करतीं हैं।'
जब कोई देश सेवा का व्रत लेकर उतरा हो तो चंद लोगों से ही निकटता क्यों बनानी
हुई? तब 'विश्वं कुटुंबकम ' की भावना सर्वोपरि क्यों न हो ? वैसे उनसे नाराज
कोई नहीं है। नाराज होने की कोई वाज़िब वजह भी तो हो। बस लोग थोड़ा घबराए हुए
हैं। उनसे नहीं......वे तो अभी मंत्री बनी भी नहीं। अभी लोगों की घबराहट उनकी
छवि मात्र से है। जो 'काम को पूजा' समझतें हैं और देश हित के बारे में गंभीर हैं वे सभी
खुश हैं। कहा जा रहा है। ' मोदी नहीं बेदी के खिलाफ है दिल्ली ' कमाल
है ! मोदी पर भरोसा है परन्तु उनके निर्णय पर नहीं। ठीक भी है प्रजातंत्र है।
हम कुछ भी बोलें, कुछ भी करें हमारी मर्जी।
वैसे सख्ती और तानाशाही होने पर आनंद आएगा। दोनों जनता
को और किरण बेदी को भी। यदि ये जनता के लिए आसान नहीं रहेगा तो बेदी
के लिए कौन सा आसान होने वाला है। उन्हें काबिल अफसर होना मालूम
है। नेतागिरी समझनी बाकी है। इतिहास गवाह है, राजनीति में पहला कदम
पड़ते ही नेताओं द्वारा किए गए सारे कस्मे- वादे औंधे मुंह गिर
पड़ते हैं और वे स्मृति लोप के शिकार हो जातें हैं।
तू -तू , मैं -मैं और आरोप -प्रत्यारोप का दंगल शुरू ही राजनीति से
होता है। अभी ' वहां केवल गंद फेंका जाता है ' की बात करके किरण बेदी विपक्ष
से जवाब -सवाल करने से किनारा कर रहीं हैं। उस गंद के साक्षात दर्शन उन्हें तत्काल
बाद होने शुरू हो जाएंगे, जैसे ही जीत उनके हिस्से में आएगी। तब कुछ भी हो
वे डटी रहेंगी। ये कयास हम अभी लगा रहें हैं। बाकि राजनीति जो न कराए वो
कम। अब समय और समय की धार देखतें हैं। इसके अलावा हमारे पास फिलवक्त और कोई काम भी नहीं।