एकाकीपन के क्षणों में गहरा और गंभीर पढ़ते हुए दिमाग शोर करने लगा था। तब मित्र सुमन शर्मा 'जाह्नवी ' द्वारा भेंट की गई पुस्तक 'मुस्कान एक लम्हा ' पढने लगी।
( पुस्तक समीक्षा , कलरव पत्रिका में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा )
सोचा कुछ हल्के -फुल्के गुनगुनाते पल होंगे। परन्तु जब पढना शुरू किया तो अचानक ही अपने आप को ठहाके लगाते हुए देखा। जीवन में ये मेरा पहला अवसर है जब में अकेली बैठी खुद से ही इतनी जोर से हँसी हूँ। बहुत संयत होकर पढने पर भी खिल-खिलाहट पूरे वक्त बनी रही। वैसे व्यंग और हंसी, चुटकुले मुझे कोई ख़ास प्रभावित नहीं करते सो कम ही पढ़ती हूँ, परन्तु लेखिका का बाल सुलभ, सहज, सरल, सजीव लेखन स्वछंद होकर ठहाके लगाने पर मजबूर कर देता है। इस पुस्तक का वर्णन गूंगे के गुड़ का स्वाद बताने जैसा होगा, इसलिए स्वयं ही पढ़ा जाए तो उत्तम होगा। बीस शीर्षक वाली इस तंज और हास्य से सराबोर पुस्तक के कुछ पल आपके साथ जरूर बाँट देती हूँ।
मसलन 'होली ' शीर्षक में किसी के रेलवे की उद्घोषिका को भांग पिला देने पर उसकी उद्घोषणा फिर कुछ ऐसी हुई।
" नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर आपका स्वागत है ....रेलवे स्टेशन पर केले के छिलके, खाली डिब्बे आदि इधर-उधर अवश्य फैलाएं ....अन्यथा सफाई कर्मचारियों को निठल्ले बैठने की आदत पड़ जाएगी ....रुकी गाड़ी में प्रवेश पाने के लिए धक्का, मुक्की अवश्य करें इससे आपके बच्चों में कुश्ती के खेल के प्रति सम्मान की भावना जागेगी ......जेबकतरों से सावधान रहने की कोई जरुरत नहीं ...पुलिस किस लिए है, रेलवे आपकी संपत्ति है इसलिए जो भी यहाँ से ले जाना चाहें ले जाएँ ......आदि "
तंज की एक बानगी 'पधारो म्हारे देश' शीर्षक में भी है ....जब दिसंबर की एक ठिठुरती ठंड में सुबह लेखिका सपरिवार जयपुर जाते समय हाई वे पर चाय नाश्ते के लिए रुकती है तो वहाँ पर ऐसा क्या हुआ की लेखिका बिना कुछ खाए ही बाहर आ गयीँ .....? वो लिखतीं हैं।
"हम मुँह लटकाए बाहर जा रहे थे, देखा वहाँ पर एक बोर्ड लगा था। 'आपके पधारने के लिए धन्यवाद, दुबारा सेवा का अवसर अवश्य दें .......और हौले-हौले संगीत बज रहा था .....'केसरिया बालमा .....पधारो म्हारे देश'
' काके लागूँ पाँय ' पढ़ते हुए हंसी रोक पाना बेहद मुश्किल हो जाता है .....इसमें आजकल के पढ़े -लिखे वर्ग और उनके अंगरेजी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चो के अपनी ही मातृभाषा की दुर्दशा, अज्ञानता और इन्टरनेट के हस्तक्षेप पर ज़ोरदार तंज है। शुरू होता है होमवर्क करते पांचवी कक्षा के बच्चे का पिता से पूछने पर।
"डैड ,गुरु गोविन्द दोऊ खड़े / काके लागूँ पाँय का क्या मीनिंग होता है ?"
अपनी अज्ञानता को छिपाता, शर्मिन्दा होता डैड गुस्से से कहता है।
"तू खड़ा रहने दे दोनों को, तू होमवर्क कर" - और पत्नी से पूछने लगता है।
"अजी सुनती हो - गुरु गोविन्द .......लागूँ पाँय, का क्या अर्थ है?"
पत्नी बेलन लेकर बाहर आती है और दहाड़ती है- "बस आप तो दूसरों के पाँव ही पड़ते रहना, कभी सर उठाकर जीने की मत सोचना "
साथ में बर्तन धोती बाई भी इसमेँ अपना ज्ञान जोड़ देती है।
"मेमसाब मैं जानती गुरु और गोविन्द को। साहब ऐसे लोगों के पैर क्यूँ पड़ते हैं? दोनों गुंडे हैं ......."
उनका अपनी बूढी माता जी से यही सवाल पूछने पर जवाब आता है - "कोई हर्ज नहीं है बेटा कर्ज़दारों के पैर छूने में....."
इसी तरह बात आगे बढ़ती रहती है। अंत में बच्चे का पिता के हाथ से पुस्तक छीनना और कहना।
"आप लोग रहने दो, मैं इन्टरनेट से समझ लूँगा" ....हास्य और तंज़ को शीर्ष पर पहुंचाता ठहाके लगवाता है।
'कबीर प्रेमी क्षमा करें' पढ़ते हुए बस खिल-खिलाते रहें ...लेखिका के शब्दों में।
"नई पीढ़ी को भी उन्होंने ही नैन- मटक्का करना सिखाया। जब भी कोई मन लगाकर पढने बैठता तो कबीर उसे नसीहत देने पहुँच जाते और गाने लगते -
"पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुया ...........ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।"
या फिर -"आज यदि सरकार आतंकवाद, लूटमार, बेईमानी के खिलाफ कुछ नहीं करती तो क्या हुआ? कबीर ने ही तो सिखाया है-
"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय / जो मन खोजा आपना, मुझसे बुरा ना कोय ....अर्थात हम सभी ...."
'किन्नर जिंदाबाद' तो इस तरह से सीमा की सारी समस्या ही हल कर दे। जब वो कहतीं हैं। भारत की रानी और बिमला पकिस्तान की सलमा और शबनम को आवाज़ लगातीं हैं।
"बहनों अपनी-अपनी बंदूक रख कर इधर आओ, ड्यूटी बाद में करेंगे आओ पहले थोडा नाच गा लें ......"
शीर्षक 'ठीक तो है' लापरवाह शिक्षकों पर प्रहार है जिसमें अध्यापिका बच्चों को सिखाती है ...हिन्दी जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी भी जाती है। अलग-अलग प्रान्तों से आए बच्चे इम्तहान में निबन्ध अपने ही अंदाज़ में लिखते हैं जिसे पढ़कर हँसते हुए पेट में बल पड़ जाते हैं।
'न रखेंगे कदम' में अस्पताल के व्यवसायीकरण, डाक्टर और स्टाफ पर हास्य में लिपटा कटु सच है तो 'ख़बरें फटाफट' में मीडिया के ऊपर मधुर व्यंग है। 'मुस्कान चली गई' में लेखिका के आतंकवादियों से किये सवाल-जवाब सुनकर आप ठहाके लगाते हुए फिर निहाल हो जाते हैं।
खुल के हँसने को मजबूर करने वाली यही लेखिका सुमन शर्मा 'जाह्नवी' संजीदा करती पाठकों की आँखें भीगाने की क्षमता भी रखतीं हैं। जिसे आप उनके दो प्रकाशित लघु उपन्यास ' चंद्रमौलि शुभा का' और 'आपकी प्रतीक्षा में ...' में पढ़ सकते हैं।
उनके लघु उपन्यास -'चंद्रमौलि शुभा का ' को हिन्दी अकादमी द्वारा राशी १०,०००/- का सम्मान भी मिला है।
ये तीनो ही पुस्तकें संस्कार अध्यक्षा डाक्टर हेम भटनागर के मार्गदर्शन और उत्त्साह्वर्धन से 'संस्कार प्रकाशन' के अंतर्गत ही छपीं हैं। हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार में संस्कार पिछले कई वर्षों से हमेशा प्रयासरत रहता है।
लेखिका सुमन शर्मा 'जाह्नवी' को मंगलकामनाएं देते हुए डाक्टर हेम भटनागर ने प्रकाशकीय में कहा है।
"सुमन शर्मा युवा पीढ़ी की नई प्रतिभावान लेखिका हैं। उपन्यास की विधा में कथानक को क्रमबद्ध करने का दुष्कर कार्य लेखिका ने बड़ी सरलता से किया है। जीवन में हास का आभाव देखकर लेखिका ने विनोद् - व्यंग के आनंददायी शब्द -चित्र पुस्तक रूप में प्रस्तुत किये हैं। यह उनकी , भाषा पर अधिकार और लेखन शैली की विशिष्टता सिद्ध करता है। "
सामान्य कीमत के इन उम्दा संकलन को आप निम्न पते से प्राप्त कर सकतें हैं -
लेखिका से आप 'फेस बुक' पर भी मिल सकते हैं।