"प्यार से सिंपल कोई चीज नहीं। फिर साली कहानी में प्यार काम्प्लेक्स क्यों है।"
ऐसा आशीष चौधरी का कहना है अपने उपन्यास ' कुल्फी & cappuccino' में। 'हिन्द युग्म प्रकाशन' से निकली ये उनकी पहली ही किताब है। परन्तु शब्दों, वाक्यों और भावों का बहाव अपने साथ यूँ बहा ले जाता है गोया कोई शानदार फ़िल्म देख रहे हों। और ऐसी फिल्म जिसमें कंसेंट्रेशन खराब करने के लिए जिसके बीच में कोई इंटरवेल भी नहीं हो।
यदि वाकई इस पर कोई फ़िल्म बनाई जाए तो वो ' थ्री इडियट (यारों की लव कहानी) और 'शुद्ध देसी रोमांस' ( उलझन और शिद्धत दर्शाती ) जैसी फिल्मों का मिला जुला रूप होगी।
आज के नवयुवक इस प्रतिस्पर्धा की दौड़ में अपने आप को स्थापित करने के लिए कितनी उलझन से भरे रहते हैं और उम्र के इस दौर में उन्हें मंजिल से भटकाने की कोशिश करते कितने ही आकर्षण बीच में आते हैं। इसको लेखक की कलम ने बखूबी उकेरा है।
पूरी सच्चाई और ईमानदारी से लिखी इस कहानी के साथ हर उम्र का पाठक खुद को बहुत जुड़ा हुआ महसूस करता है। सभी कमोबेस ऐसे तमाम तरह के अनुभवों से जरुर गुजरते हैं। इसलिए अपने आप को इन्ही चरित्रों में से एक महसूसने लगते है।
कुल्फी & cappuccino में अपने हिस्से की मेहनत, हंसी, खिलखिलाहट, आंसू, रुमानियत, मोहोब्बत, उलझन, मस्तियाँ, कौतुहल, आश्चर्य और मासूमियत के बहुत से रंग हैं।
कहानी की नायिका नेहा बेहद सुलझी हुई और समझदार लड़की है। कोमल उतनी ही बोल्ड & ब्यूटीफुल। कहानी का नायक अनुराग दोनों के बीच 'हु इज द बेस्ट' वाले भाव से थोड़ा सा उलझता जरूर है। परन्तु अपने सच्चे प्रेम से बहकता नहीं है।
अनुराग का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर और इंटेलिजेंस आकर्षित करता है और उसकी ईमानदारी, सच्चाई, मासूमियत और प्यार की शिद्दत को देख कर उस पर प्यार भी आने लगता है।
मसलन माँ का उसे सवेरे उठाने पर उसका मासूमियत से कहना - "मम्मी रोज़ सुबह सही समय से आधा घंटा बढ़ाकर ही बताती थी। पता नहीं उन्हें सुबह - सुबह झूठ बोलकर क्या हासिल होता था। मुझे बड़े लोगों का यही डबल स्टैंडर्ड पसंद नहीं। बचपन से कहते आएं हैं कि झूठ बोलना पाप है। अब बड़े होकर वो यही पाप हर रोज़ खुद ही करते हैं।"
' दुनिया का सबसे मुश्किल काम है किसी की जेब से पैसा निकलवाना। सो इस दुश्कर कार्य को आसान बनाने के लिए काउंटर पर एक सुन्दर सी लड़की को बैठा रखा था। जिन लोगों को पहली नज़र में प्यार करने की हॉबी होती है उनके लिए वह उपयुक्त थी।'
सीरियस नोट पर - "'कभी -कभी लगता है यादें ऑक्सीजन से भी ज्यादा ज़रूरी होती हैं, जीने के लिए। ' या फिर 'कभी -कभी अपने मन की बता देनी भी जरूरी होती है। पता नहीं वक्त फिर मौक़ा दे या न दे। "
'प्यार दो टाइप का होता है। एक जो किया जाता है और दूसरा जो हो जाता है। मुझे हो गया था ( नेहा से ) और कोमल कर रही थी ( मुझसे )'
''पहली मुलकात के अंत में नेहा से बाय कहते हुए मैंने सोचा ऐसे तो मैंने फिर मिलने के तमाम रस्ते बंद कर दिए। मुझे रैपिडेक्स इंग्लिश स्पीकिंग बुक की एक लाइन याद आई जो मैं बिना वक्त गँवाए बोल पड़ा। "इट वाज नाइस मीटिंग यू। होप टु सी यू अगेन "
इसी तरह के कितने ही गुदगुदाते पलों के साथ जीते हुए किताब कब आखिरी पन्ने पर पहुँच जाती है मालूम ही नहीं पड़ता। किताब का फर्स्ट हाफ बहुत ही मस्ती भरा है। मुस्कुराहट पूरे वक्त होंठों पर सजी रहती है। कहीं हंसी बिखर भी जाती है तो कभी लॉजिक मन को भा जाता है। कभी आँखें भी भीग गयीं और कुछ आंसू भी टपक पड़े। अभिव्यक्ति की मजबूत पकड़ के साथ सारे पल इस किताब में सिलसिलेवार रखे हुए हैं।
सारी मस्तियाँ और अन्य गतिविधियों के चलते हुए और दोस्ती निभाने के बाद भी अपनी मंजिल कोई नहीं भूलता। परीक्षाओं के दौरान मेहनत करना, टॉप करना बना रहता है। अनुराग का नेहा से बात करने के लिए टॉप करना बेहद जरूरी था। फिर उस राशि से उसे मोबाइल जो खरीदना था। जो उसने खरीदा भी।
ये सिद्ध कर देता है कि प्रेम को लोग किस रूप में स्वीकारते हैं। सच्चा प्रेम देवदास सा बनाता नीचे नहीं गिराता है , वरन ऊपर उठाता हुआ नयी ऊंचाइयों पर पहुंचा देता है।
और जाते -जाते अनुराग का कहना - 'मैंने कुछ देर की खामोशी के बाद तय किया कि मैं कुछ कहूँ, और मैंने कहा - " नेहा तुम जानकार हँसोगी या फिर इसे मेरी बेवकूफी समझोगी पर कोमल को किस करने से पहले भी मैंने मन ही मन तीन बार यही कहा था, आइ लव नेहा...आइ लव नेहा, आइ लव नेहा।"
नेहा दो सेकंड रुक कर बोली - "मैंने सोचा मुझे ऐसा लड़का तो कभी नहीं मिलेगा जो किसी खूबसूरत लड़की को देख कर न फिसले। क्योंकी ऐसे लड़के तो बने ही नहीं। फिर सोचा तुम कम से कम सच्चे तो हो"
ज़िंदगी के स्ट्रेस से निज़ात दिलाती और दिमागी सुकून देती हुई 'कुल्फी & cappuccino' का सीक्वल बनना बहुत जरूरी है। वरना कुछ किस्से अधूरे ही रह जाएंगे और पाठकों की अंतहीन सड़क सी लम्बी जिज्ञासा का कभी अंत भी नहीं होगा।
किताब को एक स्ट्रेच में पढ़ देने के लोभ से आप बच नहीं सकते और यही किसी किताब की जीत भी होती है।