रोज़ सुबह चाय का मग पकड़ते ही अखबार की तलब लगने लगती है। अखबार के इंतज़ार में बस अन्दर बाहर चक्कर काटती हूँ। इतनी बेसब्री से मैं दो ही लोगों का इंतज़ार करती हूँ। एक अखबार वाले का और दूसरा दूध वाले का। चाय की बेहद शौक़ीन होने की वजह से ताजे दूध की चाय और अखबार मिल जाये तो इससे हसीन कोई सुबह हो ही नहीं सकती। दूध वाले से मैंने कभी कोई शिकायत नहीं की चाहे वो पानी में दूध डाल कर ही क्यूँ ना दे जाये। और अखबार वाले को भी कह रखा है किसी दिन मेरा पसंदीदा अखबार नहीं आये तो कोई भी दूसरा अखबार दे जाना। पैसे ज्यादा ले लेना परन्तु नागा बिलकुल नहीं होना चाहिए।
जब तक ये दोनों नहीं आ जाते तब तक मुझे बेसब्री से भीतर-बाहर चक्कर काटते देख कर पतिदेव टेढ़ी दृष्टि से मुझे देखते हैं और आह भरकर दबी आवाज़ में कहते हैं। "हम ना हुए तुम्हारे दूध वाले..."
अखबार आने पर झटपट सुडोकू सोल्व करती हूँ फिर पढ़ती हूँ देश-विदेश में कहाँ क्या हो रहा है...विदेशी बालाएं हमारे अखबार का एक पृष्ठ घेरकर बैठ जातीं हैं। सुबह को जरा रंगीन भी कर देती हैं। बाकी बड़ी-बड़ी बिसनेस की ख़बरें मेरी समझ में नहीं आती।
अब रह गया हिन्दुस्तान हमारा...जहाँ रोज़ वही है- राजनैतिक उठा-पटक, महिलाओं के साथ अभद्रता, आत्महत्याएं, एक्सीडेंट, अध्यापकों ने कितने बच्चे पीटे, कितनो पर केस बना, कौन मरा, किसने मारा, खुले हुए गटर में आज कौन गिरा आदि...
मुझे समझ नहीं आता क्या कभी पुरुषों के साथ अभद्रता नहीं होती? मैंने तो बहुत बार ऐसा होते हुए देखा है। पुरुषों को भी आहत होते हुए, शर्मिन्दगी उठाते हुए। कई बार झूठे केस में फंसाए जाते हुए, निरपराधी होते हुए भी कोर्ट में घसीटे जाते हुए.. फिर? शायद इस खबर में थ्रिल नज़र नहीं आता होगा इसीलिए न्यूज़ नहीं बनती। अमूमन ऐसी ख़बरें भी नहीं आती कि अध्यपकों ने किसी स्कूल में इतना अच्छा पढाया की शत प्रतिशत रिजल्ट रहा। कोई अध्यापक पढाता ही नहीं या फिर ये खबर भी कोई खबर हुई..
आज़ादी के बाद से कई क्षेत्रों में देश ने बहुत तरक्की की है। वो ख़बरें आधे खाली गिलास की तरह शून्य तहों में कहीं पर खो जाती हैं। या अखबार में ये सब ख़बरें होतीं हैं और मेरे ही ज्ञानचक्षु जरा कम खुले हए हैं। या मेरी चश्में वाली नज़र को ये सब लिखा हुआ दीखता नहीं।
इसी तरह इतने मर गये और इतने जी गये की खबर भी मुझे समझ नहीं आती। इनको छापने के पीछे का मकसद क्या है? तकलीफ दुःख और अफ़सोस ज़रूर सबको होगा ही परन्तु इनके लिए क्या किया जा सकता है? उनकी मदद कैसे की जा सकती है? ये कहीं नहीं बताया गया होता..
वैसे गुजरने पर याद आया...कुछ महान लोग जिन्होंने देश के हित में अपनी ज़िंदगी के कई वर्ष दिए होते हैं, चाहे वो किसी भी क्षेत्र में दिया गया योगदान हो। उनके जाने का अफ़सोस और दुख बहुत होता है। फिर भी सोचती हूँ - इस देश में मरने के बाद ही आदमी की कद्र क्यूँ होती है? जब तक वे देश के काम आते हैं तब तक सब ठीक है। जब देश के किसी काम के नहीं रह जाते फिर उनको कोई नहीं पूछता। परन्तु उनके जाने के बाद सारे अखबार इस बात से भरे होते हैं कि वे कितने महान थे, कितने अच्छे थे, उन्होंने कितने बड़े-बड़े कार्य किये। और तो और उनके मित्रों को भी याद आ जातें हैं, उनके साथ बिताये सुन्दर पल और उनके कथन आदि...मगर तब तक तो सब थे हो जाता है, पास्ट टेंस में चला जाता है..
सोचती हूँ यदि उनके जीते जी उनकी महानता के बारे में यदा-कदा थोड़ा भी लिख दिया होता तो क्या उनकी जिजीविषा जाग नहीं पड़ती? वे सुकून और प्रसन्नता से भरे कुछ समय और नहीं जी लेते? बहरहाल जो भी हो, खबर कुछ भी हो हम अखबार पढना नहीं छोड़ सकते।
वैसे सब अपना काम कर रहें हैं, तभी देश मैराथन गति से न भी दौड़ रहा है तो क्या हुआ, मॉर्निंग वॉक की तरह टहल तो रहा है...