"झरो, झरो, झरो, जंगम जग प्रांगण में,
जीवन संघर्षण में, नव युग परिवर्तन में
मन के पीले पत्तो! झरो, झरो, झरो, "
कहने वाले छायावादी युग के स्तंभ सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई 1900 में अल्मोड़ा जिले (उत्तराखंड ) के कौसानी नामक एक सुरम्य गाँव में हुआ। कौसानी के सम्पूर्ण परिवेश में मातृहीन बालक पंत को सदैव माँ की ममता और उसका प्रेम प्राप्त होता रहा।
"माँ से बढ़कर रही धात्रि, तू बचपन में मेरे हित।
धात्रि-कथा-रूपक भर तूने किया जनकबन पोषण / मातृहीन बालक के सिर पर वरदहस्त धर गोपन।"
प्रकृति के अद्भुत सौंदर्य को निहारते व महसूस करते हुए उन्होंने बाल्यकाल से ही अपनी काव्य साधना शुरू की। बाद में तीर्थराज प्रयाग पन्त जी की साहित्य-साधना का केन्द्र बना। स्वामी विवेकानंद एवं महर्षि अरविन्द आदि से प्रभावित होने से उनकी बाद की रचनाओं में अध्यात्मवाद और मानवतावाद के दर्शन होते है।
दिशि-दिशि में प्रेम-प्रभा प्रसार / हर भेद-भाव का अंधकार
मैं खोल सकूँ चिर मुँदे, नाथ! / मानव के उर के स्वर्ग-द्वार!"
अपने मनोरम बिम्बों से प्रेम रच देने का मानो उन्हें आशीर्वाद प्राप्त था। जैसे वे अपने आप को संवारने में उत्साह दर्शाते रहे वैसे ही अपनी रचनाओं के बाह्य और आंतरिक दोनों पक्षों को श्रृंगारित करते हैं।
"सुन्दर हैं विहग, सुमन सुन्दर,
मानव! तुम सबसे सुन्दरतम "
सुमित्रानंदन पंत
सौंदर्य और भाव के कवि है। उनको प्रकृति, झरने, फूलों, बादलों का कवि कहा जाता है। संवेदनशील व कोमल स्वभाव के चलते पंत जी कभी भी अपने भावों के चित्रण में कठोरता व उग्रता नहीं ला सके। अपनी कलम से मृदु भावों और अत्यंत मनोहारी चित्रण को उकेरते हुए वे प्रेम, शीतलता, मधुरता की गंगा बहाते रहे। इसी के रहते वे सुकुमार कवि कहलाये। अपनी इस सुकुमारता के साथ वे हमेशा अमर रहेंगे।
"आः मधु-प्रभात!--जग के तम में / भरती चेतना अमर प्रकाश
मुरझाए मानस-मुकुलों में / पाती नव मानवता विकास "
नमन !