कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता, कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता/तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो, जहाँ उमीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता
मुक़्तदा हसन निदा फ़ाज़ली भारतीय हिंदी एवं उर्दू के उम्दा रचना कार हैं। उन्होंने कबीर दास, तुलसी, मीरा, सूरदास, इलियट , गोगोल, मीर, ग़ालिब, फ़रीद बाबा आदि को पढ़ते हुए और उनके फ़लसफ़े से प्रभावित होते हुए अपनी ज़िंदगी को संवारा।
उन्होंने इंसान के हर सुर को पकड़ कर अपनी नज़्मों में बखूबी उकेरा है। रुमानियत, खुशी, ग़म, इश्क़, मोहब्बत, भाईचारा, दोस्ती, भेद भाव, अवसरवादिता, मौक़ापरस्ती, जोश, जज़्बा आदि अनेक भावों पर उनकी कलम चली है। मानव मनोदशाओं को परखने वाले वे कमाल के कीमियाग़र रहे हैं।
"तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है / मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों, तू कहीं भी हो मेरे साथ है।" ये फिल्मों के लिए लिखा उनका सबसे पहला गीत है जिसे उन्होंने फिल्म - रज़िया सुलतान' के लिए सन 1983 में लिखा था। उनके भीतर उमड़ने वाली संवेदनाओं और भावों ने उनसे बहुत लिखवाया, बेहतरीन लिखवाया :-
1 - हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी / जिसको भी देखना हो कई बार देखना।
2 - कुछ लोग यूँ ही शहर में हमसे भी ख़फा हैं, हर एक से अपनी भी तबियत नहीं मिलती / हँसते हुए चेहरों से है बाजार की ज़ीनत / रोने को यहाँ वैसे भी फुर्सत नहीं मिलती।
3 - सफ़र में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो, सभी हैं भीड़ में, तुम भी निकल सको तो चलो / यही है ज़िंदगी, कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें, इन्ही खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो।
4 - होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है, इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है / हम लबों से कह न पाए, उनसे हाल -ए -दिल कभी, और वो समझे नहीं ये खामोशी क्या चीज है।
5 - अच्छा सा कोई मौसम, तनहा सा कोई आलम, हर वक्त का रोना तो बेकार का रोना है / आवारा मिज़ाजी ने फैला दिया आंगन को, आकाश की चादर है, धरती का बिछौना है।
6 - अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफर के हम हैं, रुख हवाओं का जिधर का उधर के हम हैं / चलते रहना है कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब, सोचते रहते हैं किस राह गुज़र के हम हैं।
7 - दरिया हो या पहाड़ हो टकराना चाहिए, जब तक न सांस टूटे, जिए जाना चाहिए / अपनी तलाश अपनी नज़र अपना तजरबा, रस्ता हो चाहे साफ़ भटक जाना चाहिए।
8 - कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई है, सबने इंसान न बनने की कसम खाई है / इतनी खूँखार न थी पहले इबादतगाहें, ये अक़ीदे हैं या इंसान की तन्हाई है।
9 -बदला न अपने आपको जो थे वही रहे, मिलते रहे सभी से अजनबी रहे / दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम, थोड़ी बहुत तो जे़हन में नाराज़गी रहे।
10- हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी, फिर भी तनहाईयों का शिकार आदमी / ज़िंदगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र, आख़िरी साँस तक बेक़रार आदमी।