आज सर्व पितृ, मोक्षदायिनी अमावस्या है। जो अन्य दिन किसी कारण वश श्राद्ध नहीं कर पाते। आज भूल -चूक लेनी -देनी वाला श्राद्ध करते है। सर्व पितरों की तृप्ति का श्राद्ध।
मंदिर में अथाह भीड़ है। लोगों की नहीं अपितु उनके द्वारा समर्पित छप्पन भोज वाले थाल की। भोर से ही लोग आकर पंडित जी को थाल दे रहें हैं और उनके चरणों में अपना शीश नवा रहे हैं। वहां रखे बड़े बर्तनों में भोजन, पूरी, पकवान आदि का ढेर बढ़ता जा रहा है। पंडित जी का चेहरा इतने भांति - भांति के पकवान देख कर चमक जाना चाहिए। लेकिन उनका चेहरा बुझा हुआ है। वे प्रसन्न नहीं हैं। अपनी दुविधा दूर करने के लिए मुझे पूछना पड़ा।
"क्या हुआ पंडित जी? आजकल आपकी दावत चल रही है और आप परेशान दिख रहे हैं?"
"..." वे हलके से मुस्कुरा दिए लेकिन बोले कुछ नहीं। अपने आप को व्यस्त रखने के उपक्रम में लगे रहे। तभी दूसरा थाल आ गया। साथ में ढेर सारे नाना प्रकार के फल भी। 'हमारे ससुर जी को फल बहुत पसंद थे।' उस महान महिला ने गर्व से मेरी तरफ भी देखा। गोया कह रही हो -देखो मैं अपने ससुर का मरणोपरांत भी कितना ध्यान रख रही हूँ। 'धन्य हो देवो' मैंने कहा नहीं तो क्या हुआ? सोचा जरूर।
पंडित जी ने वहां पर रखा सामान सोसायटी के बड़े गेट पर भिजवा दिया। "ये सब भी ले जा। फल छोड़ दे। बाकी सब ले जा।" उनका सहायक सारा खाना ले गया। वहां ये सारा भोजन बांट दिया जाएगा। गेट पर पिकनिक जैसा कुछ होगा। या फिर 2 सितम्बर, श्राद्ध के शुरू दिन से आज तक रोज हो रहा हो। बहरहाल ये सुख भरे क्षण मेरी नज़रों में नहीं आए।
"मतलब आप फल खाएंगे? वो सीधे उनके ससुर जी के पास पहुँच जाएंगे? गुड।" वे जोर से हंस दिए। कहते यही है - ये सारा अपने -अपने पितरों की पसंद का भोजन पंडित जी और कौए और गाय आदि के मार्फ़त पितरों तक पहुँच जाता है। इससे वे तृप्त हो जातें हैं।
"आप को बताऊँ, इन्होने अपने ससुर को कभी अपने घर, यहाँ नहीं आने दिया। वो गांव में छोटे बेटे के साथ रहते थे। ये बड़े हैं इसलिए श्राद्ध इन्हें करना पड़ रहा है।" उनके माथे पर असंतोष की लकीरें दिखने लगीं। ("श्राद्ध करने का हक़ केवल बड़े बेटे का होता है।" मेरी सासू माँ ने कहा / "मतलब छोटे बेटे और बेटियां केवल जीते -जी माता -पिता की सेवा कर सकते हैं। फिर उनकी ड्यूटी समाप्त?" / "जा मूरख" उन्होंने भयंकर रूप से नाराज़ होकर कहा)
"अपनी -अपनी श्रद्धा है, विश्वास है पंडित जी। या फिर किसी तरह की ग्लानि की माफ़ी हो सकती है?"
"जीते जी लोग पूछते नहीं। मरने के बाद....।" उनका चेहरा फिर संगठित हो गया। गेट से बाहर निकलते हुए मैंने रिसेप्शन की तरफ देखा।
"सो शर्मा जी, पार्टी टाइम।" वे हंस दिए। हाँ, वहां सभी के चेहरों पर नूर था। चलो कोई तो खुश हुआ। अंततः प्यार और खुशियां बांटना सबसे बड़ा पुण्य का कार्य होता है।