कभी कभी हम एक दूसरे को केवल शब्द दे पाते हैं अहसास नहीं। और बिना अहसासों वाला वह वार्तालाप शीत से ठिठुरता एक खामोश दिन सा होता है। इस जीवन में कितना कुछ है कहने को, सुनने को। लेकिन कौन किसकी सुने? कौन किसे सुनाए।
हमेशा की तरह मेट्रो अपने स्टेशन में वक्त पर पहुँच गई। लड़के ने हाथ हिला कर अलविदा कहा और ट्रेन से बाहर निकल गया। लड़की ने बिना हाथ हिलाये एक फीकी मुस्कान के साथ अलविदा कहा। मेट्रो का द्वार बंद हो गया। उसने रफ़्तार पकड़ ली। दो अनजान यात्रियों के, पिछले एक घंटे से साथ कर रहे, शब्दों के सफर का अंत कुछ इस तरह हुआ।