Thursday, June 18, 2020

सर्वे भवन्तु सुखिनः

"हुई मुद्दत कि ग़लिब मर गया पर याद आता है / वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता।"  
 
एक जगह पर रुक जाने में एकरसता की जकड़न अज़गर की गिरफ्त सी लगने लगती है। इसलिए चलते रहो, आगे बढ़ते रहो, कहा गया। आज तक सभी चलते रहे, बढ़ते रहे। किंतु अब कोविड 19 की महामारी ने इसे पूरी तरह बदल दिया है।

हमसे कहा गया पानी बचाओ, नदियां बचाओ, हवा को जहरीला मत होने दो, पेड़ मत काटो, प्रकृति के प्रति हिंसक मत बनो। और समझाया गया प्रकृति से प्रेम करो, उसके प्रति उदार बनो, किसी की समझ में नहीं आया। उसी का दुष्परिणाम रहा कि ये नासमझ मानव आज एक अति छोटू, नग्न आंखों से न दिखाई देने वाले कोरोना से हार रहा है। उसके सामने लाचार है। घबराहट से भरा वह भयभीत शावक सा उससे छुपता, बचता फिर रहा है। कोरोना ने कहा - बहुत हुआ, बहुत दौड़ लिए। अब कुछ वक्त के लिए थम जाओ। बंद करो अपनी मनमानियां।' सब स्तब्ध, ये क्या हुआ? वे चौंकें, डरे और त्राहि माम कहते हुए थम गए। न चाहते हुए भी जबरन थमना पड़ा।     

देखा जाय तो थमा क्या? केवल मनुष्य और उसके संसाधन। इंसान जल्दी में था, होड़ लगाता था, हाय -तौबा करता था। वह सब थम गया। इंसान घर पर क़ैद हो गया, उसके ऑफिस, फैक्टरियां, दुकाने, होटल, स्कूल, कॉलेज सब बंद हो गए। मेट्रो, रेल, हवाई जहाज़, सड़कों से गाड़ियां वे भी बंद हो गईं। सहसा सारा संसार थम गया। दुनिया रुक गई। बाहरी जीवन में उसकी गतिविधियां एकदम बंद हो गईं। 

अब आकलन करें क्या नहीं थमा? चूंकि हमें हर हाल सांस लेनी थी, हवाएं नहीं थमीं। पानी चाहिए था नदियां, धाराएं, झरने नहीं रुके। भोजन चाहिए था प्रकृति ने, दरख्तों ने फलना -फूलना नहीं छोड़ा। बारिशों की झाड़ियां लगे या फिर आंधी -तूफ़ान आए। बर्फ गिरी, ओलावृष्टि हुई। प्रकृति लहूलुहान होती रही किंतु थमी नहीं। बावजूद इसके वह हिम्मत करके फिर उठी, मुस्कुराई, लहलहाई और संसार को विभोर करती रही। 

आज इस अत्यंत खतरनाक विषाणु के सामने सारा विश्व पराजित हो गया। इसने कोई भेद -भाव नहीं किया। जिसने इसके सामने सर उठाने की कोशिश की वही घराशायी हुआ। खूब पैसे वाले, बड़ी -बड़ी पदवी वाले, अट्टालिकाओं वाले, झुग्गियों वाले, बेघरबार, गरीब, मजलूम, लाचार सभी ने इससे तौबा कर रखी है। कोई गुरुर करे तो किस बात का। सबक इतना ही या तो इंसान अपनी मनमानियों पर अंकुश लगा ले, या फिर शहादत के लिए तैयार रहे।    

भूल जाना इंसान की फितरत होती है। जिस दिन कोरोना इन्हें माफ़ कर देगा। अपना तांडव समाप्त कर देगा। उस दिन से अपनी व्यस्तताओं में, अपने गुरुर में इंसान सब भूल जाएगा। वही मनमानी, उदंडता, प्रकृति का दोहन, संसाधनों का दुरुपयोग उसकी लापरवाही से और जाने -अनजाने फिर शुरू हो जाएगा। सवाल ये कि क्या इंसान इस महामारी से सबक लेगा? प्रकृति के इस इशारे को समझ सकेगा? अपने गलत और बेवकूफी भरे आचरण में बदलाव लाएगा? या फिर से मनमानी करेगा और उसके दुष्परिणाम स्वरूप किसी कोरोना को फिर से आमंत्रित करने की तैयारी में जुट जाएगा?

इंसान वही जो अपनी ग़लतियों से सबक ले। अपनी क्षुद्र, विध्वंशक सोच और कुंठित मनोवृत्तियों से आज़ाद होकर सरल, उदार और प्रेममयी हो जाए। तब तक सर्वे भवन्तु सुखिनः  

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