"मुंशी जी आप विधाता तो नहीं थे लेखक थे। अपने किरदारों की किस्मत तो बदल सकते थे।" गुलज़ार ने उनके शोषित, प्रताड़ित, पीड़ित जैसी समाज में फ़ैली कई कुरीतियों की चिंता करते हुए लेखन पर कहा है।
उस दिन उपन्यास सम्राट, मुंशी प्रेमचंद की जन्मस्थली, वाराणसी के 'लमही' गांव में जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। उनकी जन्मस्थली पर प्रवेश करते ही अभिभूत होना स्वाभाविक था।गोया मुंशी जी से साक्षात रूबरू होने लगे हों। यही वे पले -बढे, होंगे। यही रची होंगी उन्होंने वे महान, कालजयी रचनाएँ। हमारे लिए आह्लादित कर देने वाले वे अद्भुत पल थे। 'यहाँ के अध्यक्ष सुरेश चंद्र दूबे जी के अलावा हमने नहीं देखा किसी और को यहाँ। अकेले वे ही सारा ध्यान रखतें हैं और प्रेमचंद की विरासत को संभाले रखने का प्रयास कर रहे हैं।' ऐसा आसपास के लोगों का कहना था।
"कौन आएगा यहाँ, कोई न आया होगा / मेरा दरवाजा हवाओं ने हिलाया होगा।" कैफ़ भोपाली का ये शेर आज उनकी जनस्थली पर पसरे सन्नाटे पर सटीक बैठता है।
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद को उनके जन्म दिवस पर मेरा श्रद्धानत नमन।