जब
नहीं रह जाता कुछ
बाहर झाँकने के लिए
तो अपने ही भीतर
झाँकने लगती हूँ
जहाँ मिलते है मुझे
उत्तर की प्रतीक्षा करते
ठगे से खड़े प्रश्नों के अवशेष
आश्चर्य और कशमकश से भरी
इस घुटन से घबरा कर
फिर बाहर भागती हूँ
जीवन का एक बड़ा हिस्सा
इसी भीतर -बाहर के पलायन में
हो जाता है व्यतीत
शेष रह जाती हैं थोड़ी सी राहतें
जो मिलती हैं तब
जब सींचती हूँ मैं
अपने पूरे भरोसे के साथ
सड़क जितनी लम्बी
उम्मीद की बेल को