जब फागुन सुस्ताने लगेगा तो चैत मुस्काने लग जाएगा। तब पतझड़ सड़क पर बहार बनकर खेलेगा। सुनहरी, सूखी पत्तियों से पार्क और सड़क पटने लगेगी। उन पर चलने से चरमराहट का स्वर दूर -दूर तक गुंजित होगा। प्रकृति न जाने कितने ही रूपों में संगीत बिखेरती है। कभी हवा की सांय - सांय, कभी पत्तों की खड़बड़ाहट। पेड़ों की सनसनाहट, नदियों की कलकलाहट। झींगुरों की झनझनाहट, चिड़ियों की चहचहाहट आदि। पतझड़ के बाद नई कोपले यौवन की अंगड़ाई लेकर फूल बनने को बेकरार रहती है। उसके कुछ समय बाद सारी कायनात फूलों, वनस्पतियों की भीनी -भीनी खुश्बू से महमहा उठेगी। पहाड़ तुम सुंदर हो। जानते हो न मैं क्या कह रही हूँ।"
"जानता हूँ "
"तब "
"तब चलेंगे न दूर पहाड़ों की यात्रा पर" वह हमेशा की तरह हंस दिया और दोनों के बीच का जीवन वसंत खिल उठा। एक बार फिर दोनों उन्ही रास्तों पर...