Wednesday, January 18, 2017

हिमशिखरों की छाया में - विष्णु प्रभाकर


धरती से मुझे प्यार है और आसमान जी को बहुत भाता है 
एक से मेरे शरीर का और दूसरे से मन का नाता है (राम नारायण उपाघ्याय)

विष्णु प्रभाकर जी द्वारा लिखी गयी यह पुस्तक 'हिमशिखरों की छाया में' मुझे अपने घर की लाइब्रेरी खंगालते हुए मिली। पुस्तक की प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं। "संसार के कोलाहल से ऊब कर असंख्य मानव हिमालय के दुर्गम उत्तराखण्ड प्रदेश में स्थित, भगवान् सदाशिव की क्रीड़ा भूमि कैलाश में शांति और मुक्ति की खोज में युग -युगांत से जाते रहें हैं।" भला इसे पढ़ कर उत्तराखण्ड की यात्रा करने की लालसा तीव्र कैसे न हो? सन 1988 में राजपाल एण्ड सन्ज़ द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक उन्होंने तीन खण्डों में लिखी है। 

खण्ड एक ( 1950 ) में उत्तराखण्ड की यात्रा का दुर्गम और मनोहारी वर्णन। खण्ड दो (1958 ) में जमनोत्री का रमणिक और खंड़ तीन ( 1957 -1964 ) में कश्मीर भूतल का स्वर्ग का रोचक वर्णन है। 

दिल्ली से अपने सफर की शुरुआत करते हुए वे कोटद्वार, पौड़ी, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, केदारनाथ, वासुकि ताल आदि के सौन्दर्य से रूबरू कराते चलतें हैं। मंदाकिनी, अलखनंदा की छलछलाहटों और रौरवनाद करती हुयी वासुकि गंगा की उन्मादिनी लहरों के साथ बहाते चलते हैं। पहाड़ों के कठिन, दुर्गम, रमणिक, हरियाले रास्तों और साथ ही मौसम के बरसाती, बर्फीले, स्वर्णिम धूप, कोहरे जैसे मिज़ाज़ों के दर्शन करवाते हैं। कहीं हरितवसना पर्वत -श्रेणियां का सौंदर्य वर्णन है तो कहीं मनोहारी हिमशिखरों की पूर्व से पश्चिम तक फ़ैली हुयी दुग्ध समान शुभ्र पंक्तियाँ।   

पहाड़ी रास्ते अपनी तमाम खूबसूरती के साथ -साथ कभी अति दुर्गम, जटिल और विनाशकारी भी सिद्ध हो जातें हैं। जैसे सौन्दर्य के साथ रौद्र रूप। साक्षात शिव के दर्शन। उन्ही के शब्दों में - 

" डॉ विद्यानिवास मिश्र ने लिखा है - शिव के विषय में कुछ भी समझ में नहीं आता, पर फिर भी उनसे लोक का मन इतना जुड़ा हुआ है कि उनके विकर्षणकारी गुण भी आकर्षण बन गएँ हैं। उनका महाशमशान आनन्दकानन बन गया है, चिता की राख शिव की विभूति बन गयी है और उनका विषपायी उन्मत्त रूप जगत का रक्षक और औघड़दानी भाव बन गया है। सारी विषमताएं उन तक पहुँचते -पहुँचते सम हो जातीं है सारे आकर्षण जड़ हो जातें हैं।" 

पहाड़ियों पर चलते हुए जीवन के उतार -चढ़ाव की तरह ही आंख -मिचौली करते अचानक मौसम का बदल जाना, बर्फ के फाहे गिरने पर बीच यात्रा में फंस जाना। तब एक शिला के नीचे आसरा लेने पर उनका भाव " उस विराट मौन को जो श्वेत अन्धकार से आप्लावित था कैसे हमने झेला उसे शब्द दे सकूं वह सामर्थ्य मुझ में नहीं है।" डॉक बंगले पहुँचने पर उन्हें अपने जीवित होने पर अचरज होना। कमाल का स्वाभाविक वर्णन।  

वहां से आगे तुंगनाथ, चमोली (गढ़वाल) की तरफ जाने का अतुलित यात्रा का वर्णन है। आगे उन्हें मंदिरों को देखते हुए शिव का प्रभाव कम और विष्णु का प्रभाव बढ़ता लगा। जोशीमठ, पाताल गंगा, बद्रीनाथ, गोपेश्वर, पांडुकेश्वर आदि बहुत कुछ। बीच- बीच में वहां के निवासियों, बच्चों, बुजुर्गों, महिलाओं आदि से हुयी बात-चीत, जानकारी लेते, गुदगुदाते अंश भी मिलेंगे। 

ऐसा स्वाभाविक, सहज, सरल, सुन्दर वर्णन पढ़ कर कोई भी आनंदित हो सकता है। पढ़ते हुए उनके साथ-साथ यात्रा करने की सी अनुभूति आह्लादित करती है। क्या हो, जब मधुर स्वप्न में हिमप्रदेश में विचर रहे हों और सहसा आँख खुल जाये ? ऐसे ही अद्भुत, रोमांचक, मनोहारी और आलौकिक यात्रा के बाद दिल्ली पहुँचने पर उनका लिखना -

"फिर वही कोलाहल, वही संघर्ष, वही निरानंद जीवन, भीड़, घुटन और शाश्वत मृग -तृष्णा।" कितना रिक्त कर जाता है। 

खण्ड -2 (जमनोत्री) फिर कभी..

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