Monday, October 24, 2016

बचपन के दिन भी क्या दिन थे



बचपन की यादों से
न जाने क्या हो जाता है 
कुछ खोया पाया लगता है 
मन उलझा सुलझा रहता है 
हम लिखने लगते हैं नज़्में 
और जीने लगते हैं उनको 
उन नज़्मों में होती है 
अनगिनत अनकही बातें 
कुछ लम्हे खुशी के 
कुछ दुख की सौगातें 
कुछ किरचें यादों की लेकर  
खामोश सफर तय करते हैं 
भावों की खेती करते हैं
रिश्तों के फूल खिलाते हैं  
यादों की भीनी खुशबू से 
सपनो में रंग भरते हैं  
कुछ इत्र के बादल उठते हैं 
कुछ प्रेम लिपटता जाता है 
हम ख्वाब सजाने लगते हैं  
ये किससे कैसा नाता है 
कागज़ पर रख कर यादों को  
संसार बसाने लगते हैँ 
अनुभव के पक्के रंगों से 
जीवन को लिखने लगते हैं 
फिर से एक बार पलट कर 
बचपन को जीने लगते हैं 

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