Tuesday, August 16, 2016

कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना ( Sharmila Chanu Irom )


'उनके लोग उन्हें स्वीकार नहीं कर रहे हैं..' अखबार में खबर की हेडलाइन्स थी। कौन हैं वे लोग? जिन्हें शर्मीला इरोम के 'लोग' कहा गया ? 

इरोम की आज की स्तिथी को देखते हुए कई ऐसे सवाल दिमाग में तैरने लगे जिनका न सिरा न अंत। प्रतीक बन कर रह जाना शायद उन्हें अब मंजूर नहीं। उन्होंने क्या सोच कर उपवास शुरू किया होगा और अंत में हुआ क्या? कोई भी काम यदि 'बाई चॉइस शुरू करो तो क्या अंजाम ऐसा होता है ? गाईड फिल्म का नायक, सन्यासी राजू याद आने लगा। मन में उठते सवालों की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है।

क्या इरोम ने तब सोचा होगा उनकी इस तपस्या का यह सिला मिलेगा ? ये संकल्प स्वइच्छा से शुरू किया गया था जिसमें उनके निजी स्वार्थ की गुंजायश तक नहीं। फिर ? 

अपनी सारी जवानी की आहुति अस्पताल के बंद कमरे में होम करके अट्ठाइस वर्ष की शर्मीला चौवालीस वर्ष की इरोम बन गईं। क्या सोलह वर्ष तक निराहार रह कर उन्हें बेहद आनंद की प्राप्ति हुयी होगी ? कुछ परमानंद टाईप की ?

अपना उपवास तोड़कर यदि उन्होंने खुले आकाश के नीचे से अपनी ( AFSPA ) अहिंसात्मक लड़ाई ज़ारी रखने की सोची तो इसमें गलत क्या हो गया ? विरोध के स्वर क्यों उठे ? मजबूत इरादों वाली इरोम ने जब शुरू करते समय किसी से नहीं पूछा तो अब क्यों पूछना था ? वे नाराज होने वाले लोग कहाँ से प्रकट हो गए ? सोलह वर्ष उन्होंने जो किया वो सामने है अब जो भी करेंगी वो भी करने दो। गलत कुछ नहीं किया। फिर पहले से ही विरोध क्यों ? यदि वे खुले आकाश के नीचे विचरते हुए या कोई अन्य रास्ता अपनाते हुए अपने मकसद को पूरा करने का प्रयास करना चाहतीं हैं तो इसमें उनके सो कॉल्ड लोगों को परेशानी क्या है ? 

अपने इन तमाम वर्षों के दौरान 'राजू गाईड' की तरह वे शहीद हो जातीं तो क्या होता? वे पुण्यात्मा कहलातीं ? उनका नाम अमर हो जाता? देश -विदेश के सारे अखबार उनके इस बलिदान से उनकी चर्चा और प्रशंसा से भरे होते ? उनकी प्रतिमाएं लगतीं, स्कूल- कॉलेजों के पाठ्यक्रम में पढाईं जातीं ? कितने ही उच्च पुरस्कारों की झड़ी लग जाती ?  

इस देश में इंसान की कदर मरणोपरांत है। हमने जिन महान लोगों को उनके बुलंदियों और गुमनामी के दौर में देखा भी नहीं होता है उनके बारे में जानते तक नहीं थे। इस संसार से जाते ही उन्हें जानने लागतें हैं। उनके लिए गुमनामी, कष्टों और अभावों से भरा जीवन जीने से अच्छा मरना लाजवाब होता है....या मरना ही यादगार हो जाता है। रोबिन शर्मा ने कहा - 'Who will cry when you die ' ये चाहे किसी भी सन्दर्भ में कहा हो किन्तु इसका लिट्रल अर्थ लेते हैं तो ?

इरोम मात्र एक बूंद शहद से अपना सोलह वर्षीय लंबा उपवास तोड़ते हुए संवेदित हो गईं, भावुक हो गई। उस वक्त उनके दिमाग में क्या विचार आया होगा? या फिर वे इंतज़ार में थीं कि ये सब उनकी माँ के स्नेहिल हाथों से होगा ? उस वक्त वहां पर माँ क्यों नहीं थीं ? वहां पर एक अजीब सा शोर करता सन्नाटा क्यों पसरा हुआ था? बहरहाल... 

क्या प्रेम बीच में आते ही जीवन का गणित सब गड़बड़ा जाता है ? बैजू -बावरा, हीर -राँझा, रोमियो -जूलियट, डेस्डिमोना आदि किसी भी प्रसंग को देखें। कुछ और पीछे जाएँ तो राधा, मीरा आदि को देखें। तो साबित हुआ। प्रेम = दुःख, व्यथा, त्याग, लांछन, बलिदान, अवहेलना, बैर, धोखा, हत्याएं, फरेब....ऐसा?? तभी कहा गया होगा। ' फॉल इन लव'। यदि प्रेम में ये सब भाव नहीं होते तो प्रेम दिव्यानुभूति होता, भरोसा, सकारात्मकता, मधुर अहसास से लबरेज़ होता। तब उसे 'राइज इन लव' कह देते। नहीं क्या ? 

विरोध में उठी आवाजों से कहना था - सोलह वर्ष तक जो अहिंसात्मक क्रांति की मशाल इरोम ने जलाए रखी आगे अब तुम संभाल लो। सोलह वर्ष न सही सोलह दिन...सोलह सप्ताह...कुछ समय तुम भी कर लो। कोई नहीं आयेगा, आखिर कष्ट किसे पसंद? सब इरोम करे, वे सिर्फ बातें बनायें? सारे निराशावादी, अहमक, बुड़बक लोग। और वो क्या कहतें हैं, विदूषक और चिरकुट भी...बेकार टाइप के लोग..... 

उनकी लिखी कविता की चंद पंक्तियाँ। 

मैं अमन की खुशबू फैलाऊंगी / अपनी जन्मभूमि में / जो आने वाले किसी समय में / फैल जाएगी समूची पृथ्वी पर 



 









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