कभी -कभी मैं इस शहर की ओस सी ताज़ी सुबह, तपती दोपहर, रूमानी शाम और खामोश रातों में सहज होने लगती हूँ। मन में कई बार ख्याल आने लगता है कि अब इस खूबसूरत शहर से प्यार करना शुरू कर दूँ। जब तक इन पर विश्वास की तह बैठानी शुरू करती हूँ तब न जाने फिर कहाँ क्या हो जाता है? बहुत कुछ सामने से गुजर जाता है। आते -जाते मौसम के कुछ गीले किस्से, बसंत और पतझड़ सी यादें, तकिए पर रखीं कुछ सीली रातें और कानों में गूंजती हुई मुस्कुराती आवाजें।
चंद दिनों में ही मात्र कुछ लफ़्ज़ों के खो जाने से कितना कुछ बदल जाता है। अब टेबिल किताबों से भर गईं है। जिन लेखकों को पढ़ना खूब भाता था वे किताबें सबसे नीचे दब गईं हैं। आजकल का पढ़ते -पढ़ते मन समकालीन और सनातन, हिन्दी और अंग्रेजी के बीच पेंडुलम की तरह झूलने लगा है। अब हिन्दी के उन महान रचनाकारों की कालजयी रचनाओं का क्या होगा जो आज तक भी मन को सुकून दे जातीं हैं। जिनसे मेरा रैक अटा हुआ है।
आलम ये है कि मेरे जिस कमरे में अदरख की चाय की खुश्बू जम चुकी थी अब यदा - कदा उसमें कॉफी की महक....कॉफी की फ्रेगरेंस....... घुलने लगी है। अब क्या होगा? क्या मैं गोर्की, एमिली डिकिंसन और चेख़व के अलावा और कुछ नहीं पढ़ सकूँगी?
या रब मुझे माफ़ कर देना।