"क्या मैं यहाँ पर बैठ सकता हूँ ?"
"जी ..... "
"आप अकेली बैठी हैं ? कहते हैं कॉफी के साथ कम्पनी मिल जाए तो कॉफी का स्वाद दुगुना हो जाता है। आपकी क्या राय है मिस ......."
".....जी ठीक "
"मैं सुशांत ....ये मेरा कार्ड है .....एनी टाइम .....मुझे खुशी होगी "
"जी " - कॉफी हॉउस से बाहर निकलते ही वह कार्ड की चिंदियाँ हवा में उड़ा देती है।
शनिवार की शाम वह रेस्त्रां-पब में बैठी अपनी मानसिक थकान से उबरती निश्चिंत बैठी थी।
"एक्सक्यूस्मी .....कैन आई सिट हियर ?"
"एक्सक्यूस्ड "
"मैं सागर……… आप अक्सर आतीं हैं यहाँ पर ?"
"हम्म......... शनिवार की शाम को "
"अकेली ?"
"हम्म ......"
"मैं भी अकेला ही आता हूँ ..दरअसल मैं यहाँ पर अकेला ही रहता हूँ , शरीफ हूँ .....अच्छे आदमी की क़तार में जगह मिल जाती है मुझे ..." -वो मुस्कुराता है।
"मैं शाम को रेस्त्रां -बार में आती हूँ .....इसलिए मुझे बुरी औरत की क़तार में जगह मिलती है"
"ओह !.......आप मज़ाक अच्छा करतीं हैं। शनिवार मेरा भी फ्री होता है .....मैं आपका साथ देना चाहूंगा .....मुझे खुशी होगी ....प्लीज़ ना मत कहिएगा "
"......"
फिर से एक और बार आहत होती सोचती है .....पता नहीं ये शरीफ, अच्छा आदमी बार-बार नाम , भेष , कद -काठी , आवाज , अंदाज़ , शक्ल -सूरत बदल -बदल कर मुझ से मिलने हर जगह क्यों चला आता है। अब सुकून से बैठने के लिए फिर से एक नई जगह तलाशनी पड़ेगी, जहाँ ये ना पहुँच सके।
( 'लेखनी' वैब पत्रिका में प्रकाशित, लघु कथा )