Tuesday, February 4, 2014

रंगीला बसंत है आया


बचपन में मेरे ऊपर बसंत रानीखेत ( उत्तराखंड ) में बरसा था।

उस दिन स्कूल की छुट्टी होती थी। पंडितजी सुबह सवेरे ही आ जाते थे। पंडितजी का आना ही अपने आप में उत्सव होता था। या तो किसी का जन्मदिन है या फिर कोई त्यौहार। 

उत्साह से बहुत सवेरे उठ कर नहा -धोने के बाद मुझे पीले रंग की सुन्दर फ्रिल और लेस वाली फ्रॉक मिलती थी और बालों पर लगाने को बसन्ती रंग का रिब्बन। और भाईयों को पीली बुशर्ट। सभी के घरों के बाहर बसन्ती रंग में रंगे रुमाल तार पर सूखते दीखते थे और आस-पास के सारे पेड़ों पर पीले फूलों की बहार। अद्भुत नज़ारा होता था। 

पूजा के बाद हलवा - पूड़ी, मिठाई और ये पीले रुमालों वाली थाली का एक - दूसरे के यहाँ आदान -प्रदान होता था। पंडितजी सरस्वती की पूजा और हवन कराते थे। पूजा में हम बच्चों की एक -एक पुस्तक भी रखी जाती थी। तब लगता था शायद यही एकमात्र बजह है जो हम हर वर्ष शराफत से अच्छे नम्बरों से पास हो जाते हैं। रेडियों पर बसंत के गीत पूरे दिन बजते रहते थे। हम किसी आलोकिक बासंती दुनिया में मदमस्त रहते थे। 

आज न पंडितजी हैं न पूजा है। न पीले रुमाल हैं न पीले फ्रॉक। न चोटी न पीला रिब्बन और न वक्त। मालूम ही कहाँ होता है कब बसंत है। कल शाम माँ का फोन आ गया था।  

" मन्नू कल बसंत है सरस्वती का पाठ और हवन करा ले। "

"मदरलैंड टाईम नही है कब कराऊँ ? कुछ शोर्टकट जैसा बताओ वो क्या बताया था पिछले साल ,भूल गई……वैसा ही  "

"छि तू भी कैसी हो गई है कहा.…ढंग ही खराब हो गया तुम बच्चों का तो "

"माँ मुझ बेढंगी को ये तो बता दो करना क्या है इस बसंत का? कुछ लाना है तो बाज़ार अभी खुला होगा। "

" अब कैसा बसंत करोगे तुम लोग और क्या अपने बच्चों को सिखाओगे। अनाड़ी हुए तुम लोग सच्ची। छी.…  "

"यार माँ अब ये कोसना छोड़ कर जल्दी बता भी दो। "

"पीले मीठे चावल और हलवा बनवा लेना और एक पीली अच्छी साड़ी -जोड़ा और दक्षिणा मंदिर में पंडिताईन को दे देना। पैर भी छू लेना बाबू। बुजुर्गों का आशीर्वाद लेते रहना चहिए। "

माँ की आवाज सुनकर तभी से रुलाई सी कहीं पर अटकी हुई है। वो अकेले में रोने का आनंद ही कुछ और है न इसलिए। 

अब आज के दिन का सफ़र शुरू करने घर से निकलूँगी तो सब कुछ करती हुई जाउंगी। फिर बचपन को याद करती हुई आँखें नम करूंगी। पंडिताईन हर बार की तरह मुझे मायूस देख कर अपने खुरदुरे हाथों से मेरे गाल और सर को सहला देगी और में आगे के सफ़र में कुछ देर सब कुछ को याद करते हुए अंजुरी भर जल और छल्काउंगी। बस फिर इस वर्ष का भी बसंत पूरा हो जायेगा ……… 

ये बचपन इतना सुन्दर क्यों होता था ? ये मुझे ही याद आता है या फिर सभी को ? 

छी अनाड़ी ही हुई मैं तो सच्ची ……………।  
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