Friday, November 15, 2013

न तुम हमें जानो न हम तुम्हें जाने


"कुछ रिश्तों में हम समा जाते हैं। कभी किसी से न भी मिले हों तब भी कोई फर्क नहीं गिरता। सच्चे रिश्ते नाटक, दिखावा, अभिव्यक्ति या मुलाकात की मांग नहीं करते। ये रिश्ता बस बन जाता हैं और ताउम्र ऐसा ही बना रहता हैं। निहायत खूबसूरत रिश्ता।" वो रेस्तरां में बैठी चाय के कप से उड़ती हुई भाप को घूरती हुई संजीदा होकर अपने मन का गहरा राज उसे बता रही थी। 

"तू और तेरा ये महान रिश्ता, डे ड्रीमिंग से बाहर निकल मेरी जान, आँखें खोल और देख दुनिया इतनी ही नहीं है, बालिश्त भर। इसके आगे भी बहुत है।" टेबल पर रखे उसके ठन्डे हाथों पर अपना नरम हाथ रखते हुए उसने प्यार से समझाया। 

"नहीं रे यही रिश्ता सबसे बढ़िया है। न कुछ पाने की चाह, न कुछ खोने का डर, एक अहसास भर जो हर परिस्थिति में चेहरे पर एक मुस्कान बन सजा रहता है।" 

"पागल है तू सच्ची, ज़िंदगी को कितना सरल कर देती है, इतनी आसान है क्या ज़िंदगी?" 

चाय के खाली कप उठाते हुए लड़के के चेहरे पर मुस्कराहट देखती है तो उससे अपनी ठसकदार आवाज में बोली -" क्यों रे अब तू क्यों दाँत दिखा रहा है, इसकी बेवकूफी की बातों पर, है न? "

"नहीं जी, मैडम एकदम करेक्ट बोला - क्या खोना, क्या पाना का फीलिंग के ऊपर का रिश्ता। सो ट्रू, सो प्योर, सो डिवाइन....." 

"एक तेरी ही कमी थी यहाँ पर, उठा लिए कप? चल अब खिसक ले….बात करता है।"

"अरे भाई मत खिसक अभी, सुन तेरा टिप तो बनता है, बढ़िया वाला। अब इसी खुशी में इस शाम की एक आखिरी चाय और पिला दो फिर चलते हैं अपने-अपने घर। इसके सिवा और ज़माने में रखा भी क्या है।"

   

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