जब खामोशी लिपट जाती है
बर्फ की चादर बनकर
विचारों और अभिव्यक्तियों पर
कहीं से उघड़ता नहीं
कोई भी सिरा ज़माने तक
ठण्ड से कसते जाते हैं
हर कोने उसके
धुंध छा जाती है शब्दों पर
सूख जाते हैं दरख़्त सोच के
स्नेह की तपिश से फिर
जब नरमाती है चादर
और पिघलने लगती है बर्फ
तब बाहर फिसल आते हैं
अरमानों के अवशेष
जो दफन हो चुके थे
खामोश ठंडी चादर के भीतर
बिना कराह के बेआवाज़
दुआ उन पर बनाती है तब
सलीब का निशान