Saturday, November 23, 2013

पिघलती बर्फ सी दुआ


जब खामोशी लिपट जाती है 
बर्फ की चादर बनकर 
विचारों और अभिव्यक्तियों पर 
कहीं से उघड़ता नहीं 
कोई भी सिरा ज़माने तक
ठण्ड से कसते जाते हैं 
हर कोने उसके 
धुंध छा जाती है शब्दों पर 
सूख जाते हैं दरख़्त सोच के 
स्नेह की तपिश से फिर 
जब नरमाती है चादर 
और पिघलने लगती है बर्फ 
तब बाहर फिसल आते हैं  
अरमानों के अवशेष
जो दफन हो चुके थे
खामोश ठंडी चादर के भीतर
बिना कराह के बेआवाज़ 
दुआ उन पर बनाती है तब 
सलीब का निशान  
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