Sunday, September 22, 2013

घुघुती त्यौहार ( मकर संक्रांति ) (song of love ) -'कलरव' पत्रिका में प्रकाशित


कुमाऊँ, उत्तराखंड का बेहद खूबसूरत भाग है। अपने नैसर्गिक सौन्दर्य से खिलखिलाता सदियों से कितने ही लेखकों, लेखिकाओं को आकर्षित करता रहा है। इसने हिन्दी को बहुत से कवि, लेखक व लेखिकाएँ दीं हैं। जैसे सुमित्रानंदन पंत, शैलेश मटियानी, मनोहर श्याम जोशी, शिवानी, मृणाल पाण्डेय, हिमांशु जोशी आदि। वहाँ कुमाऊँनी भाषा बोली जाती है। 

उन्ही पहाड़ियों में एक चिड़िया पाई जाती है घुघुति। एक सुन्दर, सौम्य चिड़िया। घुघुति का कुमाऊँ के लोकगीतों में विशेष स्थान है। कहते हैं वो अक्सर इन पंक्तियों को गाती हुई पहाड़ियों में उड़ती रहती है। 

घुघूती बासूती / भै भूक गो, मैं सीती 

बासूती = चिड़िया का स्वर, बोलना 
भै = भाई
भूक गो = भूखा चला गया
सीती = सोती रह गई

इन पंक्तियों के पीछे की लोक कथा कुछ इस तरह से है। महीनों बाद एक भाई अपनी बहिन से मिलने उसके ससुराल आया। बहुत सुबह का चला हुआ जब वो आधी रात को वहां पहुंचा तब दिन भर के काम से बहुत थकी हुई बहिन सो रही थी, बहुत प्यार और दुलार के रहते भाई ने उसे उठाना उचित नहीं समझा। वह पास बैठा उसके उठने की प्रतीक्षा करता रहा। जब बहुत सुबह उसके जाने का समय हुआ तो वो भिटोली बहीं बहिन के पास रख कर चला गया। जब वह उठी उसने वहाँ पर रखा हुआ भेंट का सामान देखा तो उसने अनुमान लगाया जरूर उसका भाई आया था। उसे बहुत दुख हुआ कि महीनों बाद भाई आया और उससे मिले बिना भूखा चला गया और वह सोती ही रह गई। वह रो- रोकर पहाड़ों में उसके पीछे-पीछे उसे ढूँढती हुई यह पंक्तियाँ गाती हुई मर जाती है। उसने फिर चिड़िया बन घुघुति के रूप में जन्म लिया। 


इस कथा के ऊपर ही एक त्यौहार उत्तरायनी, घुघुती त्यौहार ( मकर संक्रांति ) मनाया जाता है। इस दिन घुघुति के प्रतीक स्वरूप मीठे गुड़ के आटे से ये चिड़िया के आकार की घुघुती बनाई जाती है और उन्हें तल कर फिर उनकी माला बनाई जाती है और उनका आदान-प्रदान किया जाता है। बच्चे गले में माला डाल कर खुशी मनाते हैं। आज भी वह पहाड़ों में उड़ती यही गीत गाती है.…घुघूती बासूती / भै भूक गो, मैं सीती  

इस पक्षी के साथ लगभग प्रत्येक कुमाऊँनी बच्चे और ईजा- बाबू की यादें जुड़ी होती हैं। हर कुमाऊँनी ईजा- बाबू, बच्चे को थपकी देकर सुलाने की कोशिश में लोरी गाते हैं।

घुघुती बासुती भव्वा सेई जा लो……( घुघुती गीत गा रही है / बच्चे तू सो जा ….) 

विरहा के गीतों में भी घुघुति का विशेष स्थान है। उसकी आवाज से विचलित होते नायक- नायिकाएं प्रायः घुघुति के द्वारा अपने प्रेमी के नाम सन्देश भेजते हैं और उससे अपने प्रियतम की कुशल- क्षेम पूछ्तें हैं। एक बेहद प्रसिद्द लोक गीत मशहूर लोक गायक गोपाल बाबू गोस्वामी जी के स्वर में कुछ इस तरह है। 

आम कि डाई मा घुघुती न बासा / तेरी घुर-घुर सूनी मन होयो उदासा ( आम की डाली पर घुघुति तू मत बोल, तेरी घुर-घुर सुनकर मेरा मन उदास हो जाता है)

चैत के महीने में जब मायके से बेटियों के लिए भिटोली लेकर उसका भाई या बाबा आते हैं, उसे घर की कुशल बात भी तभी पता चलती है। इस गीत में ससुराल में बेटी अपने मायके को याद करती हुई गाती है -  मीना राना जी की अत्यंत मधुर आवाज में ये प्रसिद्ध लोक गीत जो आँखे भिगा देता है। 

घुगुती घुरोण लागी म्यारा मैत की / बौडी बौडी ऐगे ऋतू चैत की ( मेरे मायके की घुघुती बोलने लगी है, क्योंकि चैत की ऋतू आ गई है )
इस तरह घुघुति पक्षी का कुमाऊँ में एक अति विशेष स्थान है। 

( 'कलरव' पत्रिका में प्रकाशित )

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