दिल्ली एक खूबसूरत, जगमगाता हुआ शहर है और इसने पिछले पच्चीस वर्षों में मुझे बहुत कुछ दिया है फिर भी मैं अहसान फरामोश पहाड़ों का मोह कभी छोड़ नहीं सकी। दिल्ली से अब मन ऊबने सा लगा है और पहाड़ अति याद आने लगे हैं। जानती हूँ दिल्ली कभी नहीं छोड़ पाउंगी, यहीं रहना होगा, दूर-दूर तक भी जाने का कोई चांस नहीं है फिर भी उम्मीद करने में क्या बुराई है। उम्मीद पर तो दुनिया कायम है। इतने वर्षों में भी ये शहर मेरा मन नहीं बहला सका। काश ये शहर मुझे रास आ पाता तो मैं दिल्ली को लिखती…….
फिर वहां की संस्कृति, तीज-त्यौहार, शरदोत्सव, नंदा देवी मेला। गर्मियों में शीतल हवा और बौछारें और उनके बीच अचानक ही सर उठता हुआ इन्द्रधनुष, सर्दियों में अभिभूत करती बर्फ से ढकी वादियाँ, मकान, दरख़्त, पहाड़ आदि और सबसे शानदार शहर के बीचों - बीच बना आलीशान ताल जिसमें कभी उगते और डूबते सूरज की आलता लगाए किरणे झिलमिलाती हैं तो कभी रंगबिरंगी नौकाएँ और उन पर बैठे सैलानी खिलखिलाते हैं।
रस्किन बांड ने सारा मसूरी लिख दिया, मैं भी वहां पर रह कर सारा नैनीताल लिखना चाहती हूँ। एक घर हो वहां पर छोटा सा, कालीनों से सजा हुआ आरामदायक। जिसमें बहुत पूराना फर्नीचर हो, ज्यादा कुछ नहीं बस एक छोटा सा टेबल, कुर्सी, ढेर सारी किताबों से अटा हुआ बहुत बड़ा सा बुक रैक, कमरा गरम रखने के लिए अलाव, सोने के लिए छोटा सा दीवान, स्नोवाईट जितना छोटा नहीं, उससे थोडा बड़ा। और हाँ एक रॉकर झूलने के लिए, उसके बगैर तो अपना गुजारा नहीं है।
कोई मेरे लिए वहां पर ऐसा वाला घर ढूंढ़ दो…… पलीज्ज्ज्ज़।