Wednesday, August 14, 2013

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले


सीमा पर आए दिन हो रहे संघर्ष विराम के उल्लंघन से विचलित होना भावुक हो जाना स्वाभाविक है. देश के जवानों के प्रति नतमस्तक रहते हैं, ये भी ठीक है. और इससे ज्यादा हम कर भी क्या सकते हैं. परन्तु फिर भी कर रहे हैं न. अखबारों को रंग रहें हैं और टी वी पर बहस भी कर रहें हैं. कुछ आला अफसर बयान भी दे रहे हैं -"जनता ....... बेवकूफ लोगों तुम शोर मत करो ... तुम ग्राउंड रियलिटी नहीं जानते, समझते। युद्ध कोई हल नहीं है." 

वैसे ये युद्ध कोई हल नहीं है वाला फ़ार्मूला देश की सीमा के बाहर ही काम करता है, ये सीमा के भीतर काम नहीं करता है. आए दिन हम युद्ध करते हैं, हिंसा, मार -काट, दुर्घटनाएं, इनकाउंटर, आरोप -प्रत्यारोप, बयान बाजी, भ्रष्टाचार, दुराचार, कौन पार्टी क्या कह-कर रही है .....कौन नेता...... ऐसे कैसे ......जरा इनसे तो निबट लें पहले। कितना काम है हमारी जान को..... कोई समझता क्यूँ नहीं? जवानों का तो काम ही है देश के लिए शहीद होना, अब ...... देश कितना बड़ा एहसान कर रहा है तुम पर … तुम्हे रोटी दे रहा है…… बदले में चंद जान........ये जिंदगी एक सौदा ही तो है.…दोस्त। 

जवानों सब कुछ तुम करो ..... सब्र भी करो हम लेंगे तुम्हारी सुध ..... कभी.... और हमारी रक्षा भी करो. चाहे उसके लिए तुम्हें शहीद ही क्यों ना होना पड़े …. आखिर तुम जवान हो वीर जवान। बाकि हम सब अधमरे लोग हैं, नेस्ती, आलसी, जमुहाई लेते हुए अपनी अपनी कुर्सी तोड़ते हुए वजन बढ़ा रहे हैं न……अरे बातों और सोच का थोड़े ही..... अपना। फिर अपना काम भी कर रहे हैं न ,बकाबकी। गरज रहे हैं न हम यहीं से उन पर  -"सरहद के उस पार वालो सुधर जाओ, मत करो ऐसा....ये ठीक नहीं कर रहे हो तुम. देखना एक दिन उनके अन्दर का इंसान जाग जाएगा और वो मान जाएंगे" 

देश के वीर जवानों तब तक तुम डटे रहो, सतर्क रहो, हमारी रक्षा करते रहो। 

वीर तुम बढ़े चलो / धीर तुम बढ़े चलो / सामने पहाड़ हो / सिंह की दहाड़ हो। 

"हमने बचपन में तुमको द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी की ये कविता पढ़ाई थी न? ........ तो बस बात ख़तम"


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