Tuesday, July 2, 2013

आशाओं के सावन में


पतझड़ कितना रूमानी होता है 
सड़क से आँगन तक
बिखरे- सूखे पत्ते 
हवा से खड़खड़ाते पैरों तले चरमराते 
पत्तों का साथ छूट जाने से 
पेड़ हो जाता है ठूंठ, वीरान
परन्तु कलात्मक और सुन्दर भी 
अपनी कल्पनाओं के रंग भरते 
सपनो से भी खूबसूरत 
इनमें वो आकृतियाँ देखो 
कभी देखो चिड़ियाँ, मोर, बच्चा 
कभी इंतज़ार करता बसंत भी 
जो खड़ा होता है इस उम्मीद में 
बहार कभी तो आएगी 
जब प्रेम में हो अटूट विश्वास
तो उसकी इस शिद्धत पर 
मौसम भी रीझ उठता है 
तब बरसने लगता है सावन 
और लहलहाने लगता है पेड़ 
कोपलों और फूलों से सजा 
महक उठता है मोगरा 
और खिल उठता है बसंत 

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