जब सारा जहाँ सो जाता है, पंछी, पेड़ और फूल भी, तब मैं पहुँच जाती हूँ सबसे ऊपर अपनी छत पर। वहां से फिर सभी दिशाओं को जी भर कर देखती हूँ। चारों तरफ सन्नाटा पसरा होता है और होते हैं बिखरे उनींदी आँखें लिए अनगिनत तारे, स्याह अँधेरे को सहलाती चांदनी, दूर कहीं -कहीं महानगरों की जगमगाती इमारतें और सड़क पर चोकस खड़े लैंप पोस्ट।
तब ऊपर आकाश में होता है अपनी पूरी भव्यता के साथ मुस्कुराता हुआ चाँद। ये चाँद न मुझे कभी दुखी नहीं दिखता। अपनी किसी भी रूप सज्जा में हो परन्तु हमेशा नहाया - धोया, धवल और तरो ताजा सा लगता है। खिलखिलाता, मुस्कुराता, और दुलारता हुआ सा लगता है।
रात के इस प्रहर में केवल दो ही लोग खुश होते हैं .....एक वो चाँद और दूसरी मैं .....