सुबह की चाय के साथ अखबार न पलटें तो चाय मजेदार नहीं लगती और पलटते, पढ़ते अंत तक आते वो फिर अपना स्वाद खो देती है। रोज़ ही वही राजनैतिक उठा-पटक, आरोप-प्रत्यारोप, भ्रष्टाचार, बेईमानी, हत्या ...न जाने क्या-क्या। दिल सा डूबता चला जाता है। हर रोज़ सोचतीं हूँ कल से नहीं पढूंगी ये सब , इससे अच्छा तो खुले फैले हुए आकाश को, स्वछंद उड़ान भारती हुई चिड़ियों को, खिलते फूलों को और दाना चुगते कबूतरों को देखूंगी। अब आदत का क्या किया जाए।
दिन में सड़कों पर, रेस्तरां पर, ऑफिसों में या अन्य किसी भी जमघट वाली जगहों पर जहाँ भी दो व्यक्ति होंगे वहां फिर वही राजनैतिक चर्चाएँ और हो हल्ला, बहस। सब अपनी-अपनी राय रखते अपनी विद्वता जाहिर करने में मशगूल। सोशल साइट्स, ब्लॉग और फिल्म डाईरेक्टर्स कोई भी तो इन राजनैतिक चर्चाओं से दूर नहीं रह पाता।
मीडिया और अखबार ने दिखा- छाप दिया तो क्या बेफकूफ हैं यही सब दिखातें लिखते रहते हैं ......नहीं दिखाया- लिखा तो ...... इतना हंगामा बरपा क्यूँ नहीं दिखाया- छापा ...सो रहे थे क्या ...जैसे आशीर्वाद भी हम ही दे देते हैं। अब चित और पट दोनों हमारी ....बस।
शाम को घर पर टी वी के आगे बैठो और रिमोट से छेड़ -छाड़ करो तब या तो शाजिशों से भरे सीरियल देखो गर इनसे बचना चाहो तो फिर वही - हम एक-दूसरे को तो देख लें पहले, फिर देश भी देखेंगे न ....वाले तेवर लीए राजनैतिक बहस, पार्टिवाद, नेतागिरी, दबंगई दिखाते कार्यकर्ता, एक दूसरे को नीचा दिखाते, अपनी- अपनी पार्टी का बचाव करते नेताओं के दावं -पेंच।
कभी पेरेंट्स- टीचर्स मीट मैं देखो, कितने जाते हैं? परन्तु राजनैतिक मज़मा लगाने और तोड़ -फोड़ करने सब बहती गंगा में हाथ धोने दौड़े चले आते हैं।
कोई बताए तो वो सुकून का पेड़ कहाँ पर उगता है जिसके नीचे बैठ कर चंद घड़ी चैन की सांस ले सकें.....
या रब इन राजनीति करने वालों को ज़न्नत नसीब कर ......इन्होने बहुत सारे लोगों को रोज़गार दे रखा है।