Tuesday, May 7, 2013

मुख़्तसर सी बात है


जब देखो अपनी ही मिच - मिच .....क्या समझते हो तुम लोग, मुझे भावनाओं का प्रदर्शन करना नहीं आता तो क्या मुझे कभी कोई तकलीफ नहीं होती। पत्थर की बनी हूँ मैं? तुम लोगों को क्या लगता है , मुझे कभी दर्द नहीं होता .......नहीं सुनना अब मुझे, तुम लोगों का ......कुछ भी......समझे तुम सब बिलकुल नहीं सुनना ........वो रेस्तरां में छाए हुए सन्नाटे से बेखबर बोलती ही चली जाती है। बहुत दिनों का आउट-बर्स्ट था शायद। 

जब तीनों मित्रों और रेस्तरां में इर्द-गिर्द बैठे लोगों को अपनी और चुपचाप देखते हुए पाती है तो अचानक लगा शायद उसका सुर कुछ ज्यादा ही ऊंचा हो गया था, टेबिल मैनर्स के खिलाफ। झटके से आँखों की नमी को जबरन पीछे धकेलती है और जोर से हंस देती है

"क्या .....ऐसे क्या देख रहे हो सब मुझे.......शकल तो देखो सबकी.....अरे बाबा मज़ाक कर रही थी "

राहत की सांस लेती सब साथ में हंसने - बोलने लगती हैं -"हम भी सोचें ये आज अचानक तुझे हो क्या गया है?"

" नहीं रे मुझे क्या होना ......मुझे कभी कुछ नहीं होता ..... तुम लोग भी न बस कमाल हो। चलो अब शुरू करो अपनी- अपनी राम कहानी........और हाँ .......कुछ खाने को भी ऑडर कर लो .....बहुत बोलने के लिए बहुत एनर्जी भी तो चाहिए.....मेरा तो व्रत होगा ....... मुझे सिर्फ सुनना जो है "

और फिर खिलखिलाहट का एक बड़ा सा बादल वहीं रेस्तरां पर ही बरस जाता है ........


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