सुबह कार तक पहुँचने पर अपराधी सा महसूस करने लगती हूँ। अपनी याददाश्त पर कोफ़्त भी होने लगती है। रोज सोचती हूँ गुनाहगार हूँ , वक्त मिलते ही कार के शीशे से काली फिल्म हटवा दूंगी, वापस आने तक अँधेरा हो जाता है। इस गुनाह पर पर्दा पड़ जाता है। भूल जाना मानव स्वभाव है।
ज्यादा अफ़सोस तब होता है जब कई बार ट्रेफिक पुलिस वाला हाथ बढ़ा कर गाड़ी साइड लगवा देता है ,पास आता है , दिल्ली की गर्मी से झुलस कर थोड़ा सांवले पड़ चुके गाड़ी पर लगे स्टीकर पर नज़र पड़ते ही फिर मेरे चेहरे का अपराध भाव उसके चहरे पर चिपक जाता है। माफी मांगते हुए, बिना कुछ कहे, जाने के लिए कह देता है।
सोचती हूँ मात्र स्टीकर लगा लेने से गुनाह कैसे कम हो गया ? क्या सारे स्टीकर वालों को गुनाह करने और नियम को ताक पर रखने का लाइसेंस मिल जाता है? क्या नियम और कानून केवल बिना स्टीकर वालों के लिए ही बने हैं?
बहरहाल मैंने आज फिर से रोके जाने पर उन्ही की मदद से सारी काली फ़िल्में हटवा दी और धन्यवाद देते हुए कह दिया - "आफिसर अब मैं सूकून से गाडी चलाऊँगी और आपका भी एक अपराधी कम हुआ। सही कहा न ?" किसी भी तरह के अपराध से बचे रहने में ही सबकी भलाई है।
अब सुकून मुझे उसकी मुस्कराहट में भी दिख रहा था।