Tuesday, November 27, 2012

आवाज़ दो कहाँ हो ( Nostalgia )


बचपन में जब हम समाचार की सार्थकता समझते भी नहीं थे तब सुबह-सुबह घर पर चल रहे रेडियो में जैसे ही भजन की स्वरलहरिया समाप्त होतीं थीं अचानक से धीर-गंभीर, मिठास और अपने सारे सम्मोहन के साथ एक आवाज़ आकर्षित कर लेती थी।

' ये आकाशवाणी है, अब आप देवकी नंदन पाण्डेय से समाचार सुनिए  ......'

स्कूल के लिए तैयार होते रहते थे परन्तु कान उस आवाज़ के मोह से दूर नहीं जाना चाहते थे। देवकी नंदन पाण्डेय जी को जानते नहीं थे कभी रु-ब -रु भी नहीं हुए थे परन्तु काफी बड़े हो जाने तक भी जब-जब उस आवाज़ को सुनते थे मन श्रद्धा और प्रेम से भर उठता था। आज वे इस दुनिया में नहीं हैं, परन्तु अपनी शहद से मीठी अद्भुत आवाज़ की उन यादों के साथ वे कई दिलों में हमेशा जिंदा रहेंगे।      

इसी तरह की एक और आवाज़ जिसने मुझे उद्वेलित किया वो थी।

'गणतंत्र दिवस की इस पावन बेला में ... आप सभी का स्वागत है ......'

और जसदेव सिंह जी की इस बुलंद आवाज़ मात्र से ही दिल में देशभक्ति का ज़ज्बा हिलोरे मारने लगता था। जनवरी माह की मीठी ठण्ड, प्रकृति और दिन विशेष का जो आँखों देखा हाल अपनी जोश और जुनून से भरी दमदार आवाज़ में जसदेव सिंह जी सुनाते थे वो भावविव्हल कर जाता था और आँखे नम करता बच्चों और बड़ों सभी में देश के लिए कुछ कर गुजरने का जोश भरता अभिभूत कर देता था। 

इसी श्रृंखला में आगे याद आते हैं अपने मनमोहक, निराले अंदाज में बोलते।

'नमस्ते बहनों और भाइयों मैं ..... आपका दोस्त ...... अमिन ....... सयानी ......'

सीलोन रेडियो से बिनाका गीतमाला प्रस्तुत करते अमिन सायानी अपनी आवाज़ के जादू से सबको बाँधें रखते थे। रात्रि आठ बजे आता था शायद ..(बिनाका गीतमाला जो-1952 से शुरू होकर-1988 तक चला उसके बाद ये विविध भारती के नाम से चला)....... और हम सब बेसब्री से उसका इंतज़ार करते थे। उनकी आवाज़ की खनक, ताज़गी और जिंदादिली श्रोताओं को बांधे रखती थी। उनकी ज़िंदगी से भरपूर आवाज़ से रात्रि के उस प्रहर में भी नहाई-धोई सी सुबह की खुशनुमा ताज़गी का अहसास होने लगता था। 

तब उस समय के मीठे और कसक भरे गीतों को पिरोती उस अद्भुत आवाज़ से हमें प्यार हो गया था। लगता था वही एक आवाज़ है जिसने हमारे मन को खूबसूरत ख्वाब दिखाने शुरू किये। गीतों में भी कितनी ताकत होती है। वो दिलकश आवाज़ हमें गीत सुनाती रही और हम बचपने को पीछे धकेलते गुड़ियों का ब्याह रचाना छोड़कर अचानक सपनो के राजकुमार की तमन्ना करने लगे। काल्पनिक संसार में दिवास्वप्न देखते, बेपंख उड़ने का भी अपना ही आनंद होता है।  

गुज़रते वक्त के साथ -प्रोग्राम्स बदल गए, गीत बदल गए, रेडियो का साथ देने टेलीवीज़न भी आ गए फिर वक्त और हालात बदल गए। इसी तरह और भी कितना कुछ बदल गया।  

इन सभी लोगों ने तो आवाज़ की दुनिया से लगभग अवकाश (जसदेव सिंह जी और अमिन सायानी जी आज भी कुछ सक्रीय हैं) ले लिया परन्तु इस तरक्की के दौर में इतनी स्पर्धा और टी आर पी की दौड़ में अत्यधिक मानसिक और राजनैतिक दबाव के चलते इन आज की आवाज़ों के लिए क्या रेडियो और टी वी के द्वारा दर्शकों के दिलो-दीमाग तक पहुँच पाना आसान रह गया होगा .........?

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