गाँव की सैर पहाड़ों का ठंडा हवा पानी और साफ़ शुद्ध वातावरण। उस पर ताईजी की ममता और उनकी केतली में पकी चाय की बात ही कुछ और है। जर्सी गाय के खालिश दूध और लकड़ी के धुंए की खुश्बू से मिलीजुली अपने विशेष स्वाद के साथ बनी इस चाय का आनंद में बहुत उठा चुकी हूँ। कितनी ही बातों और मुलाकातों की गवाह है ये चाय। कभी अकेले तो कभी दुकेले।
ताई आज भी काफी स्वस्थ्य, जिंदादिल और जीवट वाली महिला हैं। अपनी निराली गणित समझाती हुई कहतीं हैं।
"तेरी सबसे बड़ी बुआ की और मेरी शादी दस दिन के आगे पीछे हुई थी। उनका बेटा अब कितने साल का हो गया होगा? मैंने तो स्कूल पढ़ा नहीं अब तू हिसाब लगा तो। " और मैं हिसाब लगाती हूँ अस्सी वर्ष।
"ताई जब आप मरोगे ना तो अपनी ये केतली मुझे दे जाना। इसका निराला स्वाद और बचपन से लेकर आज तक की बहुत सी यादें हैं इसमें बनी चाय के साथ।"
माँ मेरे इस तरह बोलने पर नाराज़ हो जातीं हैं। परन्तु ताई बहुत जोर से हंस देतीं हैं।
"बाबु तू भी, कुछ और मांग तो।"
"नहीं ताई कुछ और नहीं, मुझे बस यही केतली चाहिए। "
"हाँ हाँ तेरे नाम कागज लिख दूंगी इसका। " वो हंसती हुई स्नेह से मेरा सर सहलाने लगती हैं।
"ताई मेरे बाल तो खराब मत करो। " मैं उँगलियों से अपने बिखरे बाल सवांरती हुई उन्हें फिर छेड़ती हूँ।
"ये बाल बनाए ठहरे तूने ? कैसे कर रखें हैं झाड़ जैसे......तेल क्यूँ नहीं डालती इनमें? तुम आजकल के बच्चे लोग भी ठीक नहीं हो। "
"आजकल बालों में तेल नहीं डालते ताई ऐसा ही फैशन है। "
"तेरा सर है फैसन आ इधर। " कहकर वो ढेर सारा संरसों का तेल मेरे सिर में उड़ेल देती है। धीरे-धीरे सर की मालिश करती हुई गाँव भर की बातें बताने लगती है और मैं पानी में भीगे पिल्लू जैसी शक्ल बनाकर रसकिन बॉन्ड की कहानियों में सर डुबाए रखती हूँ।
पहाड़ों की जाड़ों की गुनगुनाती धूप और सर की मालिश, कब आँख लग गई पता ही नहीं चला। चेहरे पर किताब का शामियाना लगाकर खूब सोई थी शायद। ठीक से याद नहीं पड़ता पिछली बार इतने चैन की नींद कब आई थी।
सोचती हूँ इतना सुकून और शांती कैसे महसूस कर रही थी? महानगरों की तेज रफ्तार ज़िंदगी में परेशानियाँ, शोर, प्रदूषण, घुटन, व्यस्तता और उलझन से खुश्क होते दिमाग पर तेल की तरावट का असर था या फिर ताई के स्नेह का.........?