"सुन कल फ्री है क्या? मिलना है.....बहुत कुछ कहना है....ज़िंदगी से जुड़ा हुआ........कल कोंफी हॉउस में १२ बजे हम्म्म्म......लंच भी साथ ही कर लेंगे......"
बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा करे दूसरी ओर से आते वे शब्द खामोश हो जाते हैं। मैं असमंजस में कुछ देर मोबाइल को देखती हूँ.......दर्द से भरी, हक और अपनापन लिए वो आवाज क्या यही से आई थी......
रात बहुत देर तक उसके जीवन के हर दुःख-सुख की हमसफ़र बनी मैं उसके बारे में सोचती रही। अलग-अलग परिस्थितियाँ कैसे हर व्यक्ति की दिनचर्या को बदल देतीं हैं। एक ही मौसम, माह और दिन में हर इंसान कितनी अलग-अलग ज़िंदगी जीता है।
कभी-कभी मुझे अपनी सीधी, सपाट सड़क सी ज़िंदगी बड़ी बेरौनक लगने लगती है। वर्षों से जिसमें कोई बदलाव नहीं आया। शुक्र तारे सी चमकदार मगर सब कुछ जैसे अपनी जगह पर अटल, स्थिर.......
उस दिन सुबह आदत के अनुसार जल्दी उठ जाती हूँ। साढ़े ग्यारह बजे थे....कोंफी होम की कोने वाली टेबिल की तरफ बढ़ती हूँ.....वो वहाँ अपना खूबसूरत चेहरा और उस पर ढेरों चिंता, अवसाद और दुख लिए पहले से ही बैठी थी।
".............." वो बिना बोले मुझे एकटक देखती है। और फिर झट से पास आकर मेरे गले से लग जाती है। मैं पीठ पर गीलापन और उस की घुटन साफ़ महसूस कर रही थी। ये हग मुझे दुनिया का सबसे प्यारा और दिव्य अहसास लगता है। जादुई तरीके से सारे दर्द और तकलीफें समाप्त हो जाती हैं, तभी के तभी.......
कुछ देर बाद वह अपने को सहज करती है और दुपट्टा संभालती फिर मुझसे बोली।
"तू क्यों नहीं पूछती है मुझसे.... कभी कोई सवाल?"
"बेटी, बहिन, बहू, पत्नी, माँ पता नहीं मैं कुछ भी अच्छी कैसे नहीं बन पाई........"
"............"
"किसी के सवाल कभी थमते नहीं.....जवाब अब मुझसे बनते नहीं......कटघरे में खड़े-खड़े मैं थक चुकी हूँ। मैं वो मुजरिम हूँ जिसपर जुर्म कभी साबित नहीं हो पाया मगर सजा उम्रकैद की तय है। " देर तक न जाने क्या -क्या बोलती रही। अपने मन का गुबार निकालती रही।
"............"
"चल बहुत देर हो गई है। सब राह देख रहे होंगे। दिल भी हल्का हो गया अब.....जाती हूँ........फिर मिलेंगे।" कहकर वह खुशी से मुस्कुराती है, मुझे फिर से गले लगाती और चली जाती है।
अब मैं सोचती हूँ...पिछले दो घंटों में मैंने उससे गिनती के दस शब्द भी नहीं बोले। फिर उसका दिल हल्का कैसे हुआ .........?