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पहाड़ों की याद आते ही मन आवारा हो जाता है। लगता है जल्द से पहाड़ की चोटी पर चढ़ जाऊं ..सबसे ऊंची चोटी पर...जहाँ से बस हाथ बढाकर आसमान को छू सकू। मैंने उस दिन के लिए बहुत सुन्दर सपने सजा रखें हैं। उन्हें तब उस नीले आसमान पर टांग दूँगी। वहाँ बैठकर प्रेम और अरमानो के गीत गुनगुनाउंगी।
निचली पहाड़ियों पर जमी हुई सफ़ेद साफ़ बर्फ, उसकी तलहटी पर छलछलाती, बलखाती नदी और आस -पास के सारे चीड़, देवदार, बांज आदि के वृक्ष...अक्सर सब मिलकर मुझे मुस्कुराने की ढेरों वजह दे जाते हैं। तब तक शायद लाल सुर्ख बुरांश भी खिल जायेगा।
हमेशा की तरह डूबते सूरज को अलविदा कहती हुई शाम अपनी गुलाबी रंगत को मेरे सपनो पर बिखेर देगी और स्वयं अन्धकार के आगोश में जाकर मौन हो जायेगी। पहाड़ों की तरह बहुत सा धीरज रखे हुए शांत शाम...
उस रात चाँद बेहद खूबसूरत हंसी हंसेगा। अपनी सारी चांदनी बिखेर कर पूरी कायनात को चमका देगा। खुशियाँ ऐसे ही बिखरती रहनी चाहिए...चारों तरफ। जिस से हर कोई उसमें रंग जाये..तब हवा नम होकर मिटटी, चीड़ और फर्न की मिली- जुली खुश्बू से महकने लगेगी...
ऐसे समय पर याद से ,चुपके से एक लम्हा सहेज कर कर रख लेना चाहिए....उस दिन के लिए....जिस दिन के लिए हम किताबों के पन्नों में होंठों से लगाकर पंख, फूल और पंखुडियां प्यार से रख दिया करते थे...