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सुरमयी शाम के कुछ पल
आज जीने का मन था यहाँ
जहाँ दरिया की गहरी चुप्पी
जम कर हिमनद बन गयी
उन अहसासों की तरह
जो कभी बहा करते थे
रूमानियत से
पीठ पेड़ पर टिका घंटों बैठती
तब सोच के पंख बहुत बड़े हो जाते
ज़िंदगी परत दर परत खुलती
आकाश छू लेने की चाहत
तीव्र हो उठती
हाथ थामते साथी का
पहुँच जाती उस मंजिल तक
जिसे पाने का ख्वाब
कभी जग पड़ा था
अनजाने में