Tuesday, December 28, 2010

ज़िंदगी मेरे घर आना ज़िंदगी



सुरमयी शाम के कुछ पल 
आज जीने का मन था यहाँ
जहाँ दरिया की गहरी चुप्पी
जम कर हिमनद बन गयी
उन अहसासों की तरह 
जो कभी बहा करते थे 
रूमानियत से 

पीठ पेड़ पर टिका घंटों बैठती
तब सोच के पंख बहुत बड़े हो जाते 
ज़िंदगी परत दर परत खुलती
आकाश छू लेने की चाहत 
तीव्र हो उठती 
हाथ थामते साथी का    
पहुँच जाती उस मंजिल तक
जिसे पाने का ख्वाब 
कभी जग पड़ा था
अनजाने में