Sunday, December 12, 2010

ज़िंदगी तुझसे शिकायत कैसे हो भला



नयी उम्मीदें जगाते उगते हुए सूरज से 
फिर मिलने की चाह बढ़ाती ढलती लालिमा से 

जीवन से भरपूर आती हुई लहरों से 
नई मंजिलें तलाशते छूटते दूर किनारों से 

जिंदादिली से भरपूर रंगबिरंगे शोर से 
दिलोदिमाग को झकझोरती अज़ब शांती से 

मुस्कुराते बाहें फैलाते पूर्णिमा के चाँद से 
सन्नाटे से बातें करवाते अमावस के अँधेरे से 

मदहोश सुकून देते जंगलों के आकर्षण से 
जगमगाते बाज़ार मधुर संगीत की रौनक से 

शिकायत अब कैसे और क्यूँ हो मुझे 
 जब ज़िंदगी कुछ ऐसा रिश्ता है तुझसे मेरा