Thursday, November 18, 2010

ऐ चाँद जरा सो जा


रात का सर्द चाँद
पेड़ों के बीच से झांकता
रूमानियत सिखा जाता
ठंडी रात के स्पर्श से
कंधे उचका कर
शाल कस कर लपेटती हूँ
बोझिल पलकें बंद होने का गुनाह
नहीं कर पाती
तू थक कर सोता क्यूँ नहीं
सकुचा कर चाँद से पूछती हूँ
अपने यौवन पर गर्वित हो वो
मुस्कराहट का उत्तर थमा देता है
छत से नीचे उतरते हुवे
पलट कर फिर आखिरी बार
देख लेती हूँ उसे
सुबह का नया सूरज
सहज ही भुला देता है
पिछली रात की बातें
फिर वही सड़कें शोर,दिनचर्या
सोच से माथे पर पड़ती सिलवटें
क्रीम की परतों के नीचे छिपा
ना सो पाया थका चेहरा
काजल से बड़ी दिखती आँखों में
ढेर सारे नए आश्चर्य
धड़कन महसूस नहीं होने पर
दिल को टटोलती हूँ
कल रात चाँद के बाजू में
शायद छोड़ आई हूँ उसे

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