हिमालय और प्रकृति महादेवी वर्मा की रचनाओं में अक्सर दीखता है। सन १९३४ की गर्मियों में महादेवी जी ( २७ वर्ष की उम्र में) इलाहाबाद से बद्रीनाथ की यात्रा पर निकली थीं। समुद्र सतह से २-३ सौ मीटर की ऊंचाई पर स्थित भाभर क्षेत्र की शिवालिक पर्वत -श्रृंखलाओं के बीच से गुजरते हुए जब वे दो हज़ार मीटर की ऊंचाई में सुदूर क्षितिज तक फैले बांज, देवदार, बुरांश, काफल, चीड़, आदि के घने वृक्षों के बीच पहुँची होंगी। तो वहीं उन्हें नंदादेवी पर्वत की गोद में अपना घर बनाने की प्रेरणा मिली होगी।
रविन्द्र नाथ टैगोर पहाड़ी (जहाँ पर गीतांजलि के कुछ अंश लिखे गए थे )
काठगोदाम से भवाली पैदल यात्रा करते समय प्रकृति की इस आपार रूप राशि से मोहित होकर ही उन्होंने रामगढ़ नामक छोटे से खूबसूरत गावं में अपनी प्रिय कवयित्री मीरा बाई की स्मृति में सन १९३६ में अपना घर ' मीरा कुटीर ' बनाया।
यहाँ पर वे सन १९३६ से १९६० तक लगातार हर वर्ष नियमित आती रहीं थीं। मीरा कुटीर और हिमालय की गोद में रहते हुए यहीं पर उन्होंने अपने सबसे महत्वपूर्ण कविता संग्रह ' दीपशिखा ' (१९४० ) की रचना की व उसमें संकलित सभी चित्र भी बनाये। 'अतीत के चलचित्र' और 'स्मृती की रेखाएं' के अनेक शब्दचित्र यहीं पर लिखे गए थे।
मीरा कुटीर भारतीय भाषाओँ के मूर्धन्य रचनाकारों के आकर्षण का केंद्र बना रहा। इलाचंद जोशी ने अपना उपन्यास 'ऋतुचक्र' भी यही पर रह कर लिखा था। सुमित्रा नंदन पन्त, अज्ञेय, नरेंदर शर्मा, धर्मवीर भारती, वशुदेव शरण अग्रवाल, आदी अनेक रचनाकारों ने यहाँ पर विभिन्न विषयों पर चर्चाएँ की थी। महादेवी वर्मा जी की 'लछमा , बिट्टो, जगबीर(जंगबहादुर), सबिया गुंगिया जैसे अनेक चरित्र ' मीरा कुटीर ' की स्मृति समेटे हुए हैं।
इसी कुटीर के सामने २००२- २००३ में शेलेश मटियानी स्मृति पुस्तकालय भी बनाया गया। जिसमें २ लाख से भी ज्यादा उच्च स्तरीय पुस्तकें उपलब्ध हैं।
इसी पर बुद्ध भी आगे कहते हैं ...चलते रहिये ..आप मार्ग में अकेले नहीं हैं....(सच्चाई के पथ पर कोई अकेला नही होता)