मुट्ठी भर धूप का इंतज़ार करते आकाश में तैरते बादलों पर रह - रह कर मेरी नज़र टिक जाती थी।
बहुत देर तक यूँ ही बठी रही बिना कुछ सोचते हुए। बस अपने आप के साथ और उस बादली स्पर्श के साथ जो बीच -बीच में आकर सहला जाता था। सिहर कर रोमांचित होती हुई मैं अनायास ही मुस्कुरा उठती थी , लजा उठती थी उस प्रेमिका की तरह जो प्रेम के हर स्पर्श से जी उठती है।
प्रकृती बचपन से ही मेरी चाहत रही है। उस पर पहाड़, बादल, कोहरा, बारिश, फूल, नदी, झरने सभी में मुझे प्रेमी के दर्शन होते हैं। फिर इनका इंतज़ार करना तो बनता है।
कोहरा, बादल और धूप की आँख मिचोली का ये खेल पूरे दिन चलता रहता है। शायद पहाड़ों के इसी मिजाज से यहाँ की जिन्दादिली बनी रहती है।