Friday, October 15, 2010

क्या यही प्यार है , मुक्तेश्वर ( उत्तराखंड )

मुट्ठी भर धूप का इंतज़ार करते आकाश में तैरते बादलों पर रह - रह कर मेरी नज़र टिक जाती थी। 

कभी- कभी बादल अचानक बहुत नीचे आ जाते और अपने रेशमी अहसास से सहलाते हुए फिर तेजी से आगे बढ़ जाते  थे। पीछे छोड़ जाते अपनी यादों को बनाये रखते हुए ठंडा पर सुकून से भरा हुआ मधुर अहसास........

बहुत देर तक यूँ ही बठी रही बिना कुछ सोचते हुए। बस अपने आप के साथ और उस बादली स्पर्श के साथ जो बीच -बीच में आकर सहला जाता था। सिहर कर रोमांचित होती हुई मैं अनायास ही मुस्कुरा उठती थी , लजा उठती थी उस प्रेमिका की तरह जो प्रेम के हर स्पर्श से जी उठती है। 

प्रकृती बचपन से ही मेरी चाहत रही है। उस पर पहाड़, बादल, कोहरा, बारिश, फूल, नदी, झरने सभी में मुझे प्रेमी के दर्शन होते हैं। फिर इनका इंतज़ार करना तो बनता है। 


कोहरा, बादल और धूप की आँख मिचोली का ये खेल पूरे दिन चलता रहता है। शायद पहाड़ों के इसी मिजाज से यहाँ की जिन्दादिली बनी रहती है। 


मौसम का यही आशिकाना रूप मोहित करता हुआ हर बार मुझे कुछ ही समय के बाद फिर से आकर्षित करने लगता है ....


महानगरों की भागम भाग और मशीन बनते जा रहीं हमारी भावनाएं सब गडमड हो जाती हैं। उस महानगरों की मानसिकता में रचने बसने की मेरी तमाम कोशिशें नाकाम होती रहतीं हैं......


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