एक पुरानी नज़्म ढूँढनॆ निकली
टेबल पर रखे खाली फ्रेम में
सोचा झाड़ बुहार कर
सजा दूंगी उसे
तब लिखी थी वो
जब मौन मेरे संवाद थे
एकाकीपन मेरा साथी
जीवन को सतरंगी करती
वो प्यारी नज़्म थी
उसे खोजती दूर जा निकली
फूल तितली आकाश से पूछती
नदी पहाड़ों झरनों में ढूँढती
कोहरे की चादर लपेट
खो गयी फिर जंगल में
जंगली हवा से सुगंधमयी हो कर
मदहोशी में लड़खड़ाती कलम से
मैं फिर से जंगल पर लिखने लगी