Saturday, October 31, 2009

अपनी ही तलाश ! पॉङ्वखोली (Uttarakhand Part -2 )



दूसरे दिन सुबह हमने द्वाराहाट से दूनागिरि मंदिर की तरफ प्रस्थान किया। कहानी है की...जब लक्ष्मण मूर्छित हो गए थे और हनुमान जी उनके लिए संजीवनी बूटी लेकर वापस आ रहे थे, तब द्रोणॉचल पर्वत का एक हिस्सा यहाँ पर टूट कर गिर गया था। फिर बारहवी शताब्दी में कत्यूरी राजाओं ने यहाँ पर माँ भगवती की मूर्ति स्थापित कर दी।

यहाँ पर मनोकामना पूरी होने पर घंटी चढाने का रिवाज है और हजारों की संख्या में घंटिया देखकर उसके आगे हम नतमस्तक हो गए। दूनागिरि से लगभग १७ किलोमीटर दूर है पॉडवखोली। कहते हैं अपने अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने यहाँ पर आखिरी का एक वर्ष व्यतीत किया था। 

जहाँ तक सड़क बनी हुई है उस स्थान का नाम कौरवछावनी था, जो कालांतर में बदल कर कुकुछीना हो गया। कथा है की कौरवों ने यहाँ तक पांडवों का पीछा किया था। यहाँ से ऊपर घने जंगलों में है पॉडवखोली। समुद्र तट से ८,८०० फीट की ऊंचाई पर स्थित साढे तीन किमी का पैदल ट्रैक। 


( हर सिंह शिकारी के साथ छोटा भाई Deepak Adhikari )

नीचे कुकुछीना पर 'हर सिंह शिकारी' से मुलाकात हुई। ९० वर्ष के चुस्त दुरुस्त श्री हर सिंह दूर के गाँव व गुफाएं दिखा कर बता रहे थे कि हमें क्या -क्या देखना है। मैं हैरान होकर उनकी आँखों को देख रही थी। वे उस उम्र में भी बिना चश्में के साफ़ देख पा रहे थे। उनकी छोटी छोटी मासूम सी आँखें जिन में अपार ख़ुशी व स्नेह भरा हुआ था। 

अपने कई निशान दिखा कर बड़ी सहजता से (जैसे खिलोनो से खेला हो) हँसते हुए बता रहे थे कि शिकार करते हुए बाघ ने उन पर कहां -कहां पर हमला किया था । उन्होंने लगभग १५० के करीब नरभक्षी बाघ मारे थे। सन् १९९० में आखिरी आदमखोर बाघ द्वाराहाट में मारा था। उत्तराखंड में बाघों का आतंक यदा-कदा बना ही रहता है जो मवेशियों के साथ साथ इंसानों पर भी हमला कर देते हैं। आगे बताते हैं -

" उस समय हम १० - २० रूपये में बाघ की खाल बेच देते थे। बाद में नियम बना कि सरकार के पास जमा करा दी जाय। थोडा गर्वित होकर फिर बोले -

"जब अन्य कोई खूंखार नरभक्षी बाघ को नहीं पकड़ पाता था तो 'डी एम् साहब' कहते थे -हर सिंह 'को बुलाओ। मेरे पास घर पर कुछ फोटो भी हैं (जो वहाँ से कुछ किमी की दूरी पर था) अगली बार जब आप लोग आएंगे तो दिखाऊंगा। "

जिस व्यक्ति ने एक बार शोहरत का जरा सा भी अंश यदि महसूस किया हो वह बाद के दिनों में गुमनाम होने पर थोड़ा मायूस हो जाता है। जब मैंने उनकी एक फोटो लेने की इजाज़त माँगी तो जोश, ख़ुशी और उत्साह से भर कर झट पट नेमप्लेट जो दुकान की दीवार पर टंगी हुई थी निकाल कर पोज देने लगे। अब हम पाँडवखोली की ओर चल पड़े। 

यहाँ पर प्राकृतिक सौन्दर्य चारों ओर बिखरा हुआ था। अति खूबसूरत मार्ग, जंगली वनस्पतियाँ, जड़ी बूटियाँ, फर्न, बाँज व बुरांश के घने वृक्ष। मार्च -अप्रैल में जब पेड़ों पर बुरांश के लाल फूल खिलते हैं तो ऐसा लगता है मानो बहार अपनी ही सुन्दरता पर रीझ उठी हो। झरे हुए फूलों पर चलना, रेड कारपेट पर चलने का सा आभास देता है।


करीब एक घंटे चलने के बाद स्वर्गपुरी पाँडवखोली द्वार दिखाई दिया। उसके अन्दर प्रवेश करते ही एक विशाल बुग्याल (meadow ) था। जिसके चारो ओर घना जंगल था और इस बीच के क्षेत्र में एक भी वृक्ष नहीं था।  सिर्फ सफ़ेद फूलों वाली मखमली हरी घास थी। इसे 'भीम की गुदड़ी' या 'भीम का गद्दा' कहा जाता है। करिश्मा कुदरत का। 



( भीम का गद्दा )

उसके आगे महंत श्री श्री १०८ बलवंत गिरी (नागा बाबा) जी का मंदिर परिसर है। उन्होंने वहाँ पर ३८ वर्ष तक तपस्या की थी। १3 दिसम्बर १९९४ मोक्षदा एकादशी को उन्होंने महाप्रयाण किया था। यहीं लाहिरी महाराज ने भी ७ दिन तपस्या की थी व पास में ही महाअवतार बाबा की गुफा भी है।

वहीं पर महन्त बलवंत गिरी जी की एक भव्य मूर्ति भी स्थापित है व उनका गुफानुमा धूनीस्थल आज भी वैसा ही है जैसा मैंने 8-9 वर्ष की अवस्था में देखा था। तब से अब तक वह धूनी भी लगातार जल रही है। 



वर्षों पहले तब पिताजी इन बड़ी सी जटाओं वाले बाबा जी को हमारे घर रानीखेत लेकर आ गए थे। शाम को पूजा के वक्त उन्होंने एक अलग ही तरह का वाद्य बजाया जो कुछ -कुछ सींग से अकार का। तब आस-पास के लोग उनके दर्शन के लिए एकत्रित होने लगे थे। यह सब देख कर वे शांति से गुफाओं में रहने वाले बाबा जी विचलित हो गए थे। उन्होंने पिताजी को कहा कि शहर उन्हें रास नहीं आ रहा है। इसलिए उन्हें वापस उनके जंगल में जाना है। इस पर मैंने तब उनसे एक सवाल किया था। 

"बाबा जी आप आराम से यहीं क्यों नहीं रहते। क्यों उस बिना लाइट -पानी वाले और बिना साधन वाली जगह पर वापस जाना चाहतें हैं....?" ( आज वहाँ पर बिजली की , खाने व रहने की पूरी व्यवस्था है। )

तब कम बोलने वाले, मृद भाषी बाबा जी तनिक मुस्कुराकर कुमाउनी भाषा में बोले। " देखना तू भी एक दिन इन तमाम साधन, सुविधाओं से ऊबकर एकांत ढूढती जंगल की ही तरफ जाना पसंद करेगी...."

तब मुझे उनकी बात समझ में तो नही आई थी। परन्तु जितनी समझ आई वह अच्छी नहीं लगी। तब मैं परीलोक के सपने जो सजाती थी।


अगले दिन उन्हें छोड़ने हम सभी पाँडवखोली आए थे। बीहड़ जंगल में बनी बाबाजी की एकमात्र कुटिया। जिसमें बीच में धूनी जल रही थी। पीने को मटमैला प्राकृतिक पानी था और प्रकाश के नाम पर दिवे की मध्यम रौशनी। उस दिन वहीं रहना था। साधनों की आदत के बावजूद भी वहां पर कोई कष्ट हुआ था बिलकुल याद नही पड़ता। महापुरुषों की भी अपनी ही शक्ति व उर्जा होती है शायद। 

बहुत वर्षों बाद फिर से वहाँ धूनी के आस-पास बैठकर आह्लादित होकर कुछ देर ध्यान लग गया था। फिर बाबाजी की कही हुई वर्षों पुरानी वह बात भी याद आ गई । वापस आने का बिलकुल भी मन नहीं था। 


आज सच्चाई यही है। कभी -कभी इन सुविधाओं व आडम्बर से भरपूर दुनिया से ऊब सी जाती हूँ और मन होता है दूर कही जाने को...... शांति व मौन तलाशती हुई बहुत ........ बहुत ..... दूर......


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