उस रोज़ .......
सड़क किनारे बने ढाबे पर
चुपचाप चाय का ज़ायक़ा समझ रही थी
अचानक नज़र पड़ी बचपन
बेचारे बचपन पर
उम्र शायद दस वर्ष
गंदे हाथ पैर, बिखरे बाल
दुबली काया पर फटी कमीज़
पैबंद लगी हाफ पैंट
चप्पल रहित पैर
मानो धरती के स्पर्श से आनंदित हों
कुछ गुनगुना रहा था
शायद मुस्कुरा भी रहा था
बहुत देर एकटक देखती रही सोचा
ये भी एक जीवन है
संघर्षमय !
कर्मण्ये वाधिकारस्ते को
सार्थक करता हुआ
चाय समाप्त हो चुकी थी
मेरे इशारे पर वो कप लेने आया
सहानुभूतिवश मैंने एक नोट बढ़ाया
बचपन... वो बेचारा बचपन
दो आँसू उन आँखों से टपके
शायद ख़ुशी और उम्मीद के आँसू
दो आँसू इन आँखों से टपके
कुछ ना कर पाने का अफ़सोस
कुछ बेबसी के आंसू
तभी छोटू की आवाज़ का उद्घोष हुआ
वो हड़बड़ाया, चौंका और पलटा
छोटा अस्पष्ट सा कुछ बोलकर चला गया
दूर से एक बार फिर पलट कर देखा
बचपन... उस बेचारे बचपन ने ....