Friday, June 26, 2009

लेह , सारचू , बारलाचाला , मनाली


लेह से जब वापसी का सफ़र शुरू हुआ  तो सबसे पहले वास्ता पड़ा इस पार्ट ऑफ़ लाइफ से ..शुरू में तो हम सब बहुत हँस रहे थे ...लेकिन जब ड्राईवर ने बताया की हमारा एक टायर बहुत अच्छी हालत में नहीं रह गया है तो हम सबके होश उड़ गए ...वहाँ से मनाली तक बीच में कोई दुकान नहीं थी जहाँ पर ट्यूबलेस टायर ठीक हो सके। इस रास्ते में वैसे भी दारचा तक (लगभग 300 किमी ) कोई छोटा गाँव या क़स्बा तक नही था बिलकुल वीरान........

कारगिल से लेह के ही रास्ते में करीब 25 किमी पर यह स्थान भी था ..जहाँ बोर्ड लगा था चुम्बकिय पहाड़ ....वहाँ पर गाड़ी बंद करके न्यूट्रल पर डाल देने पर चुम्बकिय पहाडियाँ उसे धीरे धीरे पीछे को खीच रहीं थीं। वह भी एक विचित्र अनुभव था इस अद्भुत यात्रा का .....


उस रात का पड़ाव सारचू (1400  फीट ) के आर्मी ट्रांसिट कैंप में था .उसके आलावा वहाँ पर कुछ और प्राइवेट टेंट थे रात्रि विश्राम के लिए। सारचू एक बहुत ही ठंडी जगह थी। तीव्र शीत लहर से हाथ पैर सब सुन्न होते जा रहे थे। कमरे में एक गैस प्रज्वलित कांगडी जलने से थोड़ा राहत मिली फिर किसी की हिम्मत नहीं हुई बाहर निकलने की। मेजर फ़र्नान्डिस के सहयोग से रात का स्वादिष्ट खाना कमरों में ही मिल गया ....



प्रातः 5.30  बजे सिपाही चाय लेकर आया तो उसने बताया -"बाहर का नज़ारा देख लीजिए कल रात ताजी बर्फ गिरी है। "

मैं अपने आप को रोक पाने में असमर्थ सामने की पहाड़ी में पहुँच गयी बर्फ खाने व बचपन के नैनीताल के दिन याद करने। जब ताजी बर्फ गिरते ही प्लेट में चीनी, गुड लेकर हम सब बच्चे खूब बर्फ खाते थे। वापस आने पर देखा तो बच्चों ने देश का पानी बचाते हुए  नहाने से साफ़ इनकार कर दिया था और बदले में ढेर सारा डियो उडेल कर महकते ,चहकते तैयार हो रहे थे .... बाल्टियों का पानी जमा हुआ था (तापमान -६ ,-७ रहा होगा ) वैसे स्टोव पर पानी गर्म करने को रखा हुआ था लेकिन बच्चों में इतना सब्र कहाँ।


सुबह आलू,पूरी का बढ़िया नाश्ता करके निकलने की सोची तो हमारी डीज़ल वाली गाड़ी भी ठण्ड से ठंडी पड़ चुकी थी । आर्मी के अनुशासन और तत्परता की मैं हमेशा से ही कायल रही हूँ। झट-पट एक अन्य गाड़ी से टायर में हवा भर कर गाड़ी स्टार्ट करके तैयार कर दी गई। साथ में हिदायत भी दी कि रास्ते में सड़क पर बहता पानी भी जमा हुआ मिलेगा सो धीरे चलाना अन्यथा टायर फिसलने का डर रहता है। सभी का धन्यवाद करते हुए हम आगे के सफ़र को बढ चले ...

अब धीरे -धीरे बर्फ बढती ही चली गयी और हमारे एक मात्र टायर का साथ था। स्टेपनी पंक्चर  चुकी थी। कच्चा -पक्का बर्फीला दुर्गम रास्ता। अब हम बारलाचाला (1600 फीट ) की ओर बढ़ रहे थे। बीच में दोनों तरफ से बर्फ से ढके संकरे रास्ते में एक ट्रक के फँस जाने से २ घंटे की मशक्कत के बाद ही आगे बढ़ पाए।


धवल बर्फ के बीच ज़न्नत का सा सुकून महसूस हो रहा था। ठण्ड नाम मात्र को भी नहीं । इन खूबसूरत नज़ारों को दिल की गहराईयों और आँखों में बसाते हुए हम आगे बढे । अब एक और भयंकर ट्रेफिक जाम से वास्ता पड़ा । करीब 10 - 12  बाईकर्स सामान से लदी हुई बाइक के साथ उस कच्चे , पथरीले बर्फमयी पानी में फँस चुके थे, कई लोग उन फँसी हुई बाइक्स को जो घुटने तक बर्फ के अति ठंडे पानी में खड़े थे निकलने का प्रयास कर रहे थे।



इधर ड्राईवर हमारी गाड़ी को हर मिनट आगे - पीछे कर रहा था। टायर जलने की महक आने पर उसने बताया।
-"टायर भी जलने लगे है , लेकिन यदि गाड़ी को हिलाऊंगा नहीं तो ये इस बर्फीले पानी में जम जाएंगे और फिर हम भी फँस जायेंगे। " 


करीब आधे घंटे तक दम साधे व रोमांचित होते हम सब देखते रहे। बच्चे ही बहुत अच्छे होते हैं। हालात की नाजुकता व परेशानी से वे कोसों दूर होते है। गाड़ी से बाहर निकल कर बर्फ में खेलने लगते थे। वहाँ से निकलने पर भी उन संकरे रास्तों पर हम बस चल रहे थे। कब क्या हो जाये कुछ पता नहीं...


शाम तक हम मनाली की हसीन वादियों में पहुँच चुके थे। अब लगा जैसे एक जंग जीत के आयें हों। मनाली में दो दिन तक खूब धमाल मचाया ...कई दुर्गम दर्रों को पास करने के बाद रोहतांग तब बहुत छोटा व सरल दर्रा मालूम हुआ । 


फिर हिडिम्बा देवी को प्रणाम करके अपने इस अति रोमांचक व खूबसूरत सफ़र को न चाहते हुए  भी विराम दिया और  वापस अपने 'घर होम स्वीट होम ' दिल्ली की तरफ रूख किया.........





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