Tuesday, June 16, 2009

खर्दुंगला 18380 फीट ( लेह ) संसार की सबसे ऊंची मोटरेबल रोड


खर्दुंगला ( 18380 फीट लेह )


( खर्दुंगला 18380 फ़ीट , लेह )

इस बार सड़क द्वारा लेह यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पूरा सफर बहुत ही रोमांचक था। दिल्ली से लेह तक के सफर में बस एक बार गाड़ी का टायर पंक्चर हो गया था वरना अंत तक उसने अद्भुत साथ निभाया पक्के साथी की तरह।

लेह पहुँचते ही प्लान बनाया अगले दिन खर्दुंगला देखने चलेंगे.. दुनिया पर सबसे ऊंचाई ( 18380 फीट ) पर बनी मोटर के लिए रोड यहीं पर है। सुनकर ही मन अति रोमांचित हो उठा था। (लद्धाखी भाषा में ला दर्रे को कहते हैं)

सुबह ही हमने बहुत से निर्देशों के साथ अपनी कजिन और सारे बच्चों को लेकर खाना, जूस, पानी, फल आदि पैक करके पिकनिक मनाने की पूरी तैयारी कर ली थी। 

"वहाँ पर सर दर्द होगा, जी खराब होगा, बेहोशी आ सकती है, ओक्सीजन कम है वगैरह " सुनकर एक बार तो दिल बैठने लगा कि बच्चों के साथ कैसे होगा? पर सभी के बुलंद हौसलों के रहते हम निकल पड़े इस मुकाम की ओर। लेह शहर से 39 किमी की दूरी पर है खर्दुंगला। वहां पर वीरान वनस्पति रहित नंगे, मटमैले पहाड़ फैले हुए थे। जैसे कलाकार ने भूरे रंग से सभी कुछ रंग दिया हो। ऊंचाई के बढ़ते रहने से अब धीरे -धीरे बर्फ दिखाई देनी शुरू हो गई थी। उत्त्साह से भर कर , फोटो खिचवाने और बर्फ में खेलने... सभी गाड़ी से बाहर निकल पड़े थे। बच्चों का साथ भी कमाल होता है। उनका शोर, चीखना -चिल्लाना, नाचना -गाना हर यात्रा को आनंदित बना देता है। 




बीच रस्ते में मेंढक के आकार का कुछ दिखाई पड़ा ...पास आने पर पता चला एक ही पत्थर से निर्मित विशालकाय प्राकृतिक मेंढक बना हुआ था। जिसे रंग करके उसे थोडा सँवार दिया गया था और उस पर खग्दुंगला फ्रोग भी अंकित कर दिया था। प्रकृति की लीला अपरम्पार है ... 

जैसे जैसे ऊँचाई बढती गई बर्फ की मात्रा भी बढती गई और नज़ारा मन को आह्लादित करने लगा। कहीं कहीं तापमान बहुत कम हो जाने से पहाडों से नीचे को बहता हुआ झरने का पानी जम कर नुकीले आइस्कल्स के रूप में दिख रहा था , जो बच्चों के लिए मनोरंजन का साधन बन गया था। हाथ सुन्न हो गए थे परन्तु फिर भी सभी देर तक बर्फ से खेलते रहे। 

आखिर ऊपर टॉप पर पहुंच गए। चारों तरफ सफ़ेद बादलों सी बर्फ ही बर्फ। ऐसा लगा मानों हिमालय की गोद में आ गए हों। अति खूबसूरत !! इससे सुंदर कुछ नहीं। 

अभी ये सब गाड़ी  शीशे से ही देख रहे थे। ज्यों ही गाड़ी से बाहर कदम रखा। ठंडी हवा के तीव्र झोंके प्रहार से लगने लगे। वहां की हवा इतनी ठंडी थी की हाथ पैर की उँगलियाँ, नाक सुन्न पड़ने लगी। आगे बढ़ना मुश्किल हो रहा था। कदम को कदम नहीं सूझ रहे थे। लेकिन मन में बहुत ही गर्व का भाव था जैसे एवरेस्ट फतह कर लिया हो ।

परेशानी के बावजूद भी बहुत देर तक खेलते रहे। खूब फोटो ली, बर्फ में गोलाबारी की और मित्रों के लिए सोविनियर शॉप से कुछ वस्तुएं खरीदी। कार्यरत मेज़र के सौजन्य से गर्म चाय पी। घंटे भर के यादगार, खूबसूरत और कभी न भुला पाने वाले पलों को कैमरे, दिल व आँखों में कैद करके न चाहते हुए भी नीचे उतरने के लिए गाड़ी की तरफ बढ़ने लगे....

अब मेरी मजबूत टीम के बच्चों ने मायूसी से पूछा - " वो बेहोशी कब आने वाली थी?"

और इस मासूम से सवाल पर हम सभी खिलखिलाकर हंस पड़े .........



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