Saturday, March 7, 2020

उत्तराखंडी पहाड़ी होली की बहार - स्वाँग ( Mimicry )


इस स्वाँग शब्द से बचपन में कभी दोस्ती हुई थी मेरी। उत्तराखंड के पहाडों में पली बड़ी हुई हूँ। वहाँ पर होली के त्यौहार की बहुत धूम मचती है। ४-५ दिन तक पुरुष व महिलाओं की  बैठकें लगती हैं और खूब नाचते -गाते, खाते- खिलाते मनाया जाता है ये मस्ती भरा त्यौहार। इसी के बीच में ये स्वाँग रचने का सिलसिला भी चलता है।

स्वाँग का मतलब होता है...जो बात हम सीधे न कह पाते है उसे नक़ल करके कहना। किसी की खिंचाई करनी हो या मस्ती मजाक में बहुत कुछ लेकिन बुरा न मानो होली है की आड़ में। कोई भी किसी का वेश बनाकर आता है और फिर धमाल, खिचाई, मस्ती और अंतहीन ठहाके लगते थे।

उन दिनों मैं नवीं कक्षा में थी। हमारे स्कूल में चालीस बसन्त देख चुकी, ममता विहीन ,हँसी से कोसो दूर रहने वाली प्रधानाचार्या थीं। छोटी सी बात पर भी लड़कियों की चोटी खीच देना, प्रताडित करना, कटाक्ष रूपी शब्दों का भरपूर प्रयोग करना, विद्यार्थियों के सामने भी अध्यापिकाओं को अपमानित करना उनके लिए साधारण सी बात होती थी। आँखों में आँसू लिए अध्यापिकाएँ व सह्पाठियों को देखकर मेरा मन अन्दर तक अवसादित हो जाता था। कभी - कभी तो निर्दोष भी उनके कोप का प्रसाद पा जाते थे। हम सभी के अन्दर गरल रूपी कुछ एकत्रित हो रहा था।

स्वभाव से मैं थोड़ा अन्तर्मुखी थी और अपना पूरा ध्यान सिर्फ पढ़ने में ही नहीं लगाती थी...ज़िंदगी में और भी बहुत से क्रियाकलाप थे करने को...सो सभी करती थी। उसके चलते उनकी अंशमात्र सी कृपादृष्टि मुझ पर थी। लेकिन आँखें अक्सर तरेरी जाती थी। जिनसे मैं सहम भी जाती थी ।

उस बार होली की बैठक जोशी मैडम (हिंदी अध्यापिका) के घर पर थी। प्रधानाचार्या महोदया का आना तय था ही। अब भुक्तभोगी अध्यापिकाओं व लड़कियों ने मिलकर उनका स्वाँग करने की योजना बनाई। लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे? इस दिलेर कार्य को अंजाम देने का सौभाग्य या दुर्भाग्य जो भी था मुझे मिला। मैं आज तक हैरान होती हूँ की मैने इसे स्वीकार कैसे किया? बिना सोचे समझे बहुत तीव्र गति से धड़कते दिल से बस स्वीकार कर लिया था।

तयशुदा दिन साड़ी पहन कर नकली बालों का जूड़ा बनाया, उन पर जहाँ- तहाँ पेंट से सफेदी झलकाई। आँखों पर काले बैकेलाइट का चश्मा लगाया। चेहरे की सारी हँसी छिपाकर उस पर एक अक्खड़ और सडू सा भाव चिपकाया। जैसे ही हम किसी चरित्र को निभाने के लिए ड्रेसअप होते हैं तो अन्दर से वो पात्र स्वयं ही जी उठता है। अब तक मेरा सारा डर व घबराहट समाप्त हो चुका था।

कुछ सहपाठियों व अध्यापिकाओं के साथ मिलकर, शालीनता के दायरे में रहकर जो दर्पण दिखाया उन्हें वो सब आज तक मुझे बखूबी याद है और ताउम्र याद रहेगा। करीब आधे घंटे तक दिल के सभी दबे अरमान व गुबार निकाले। अंजाम गुलिश्तां क्या होगा की तर्ज़ पर सभी के निर्दोष आंसुओं का हिसाब पूरा किया

उस दौरान उनके चेहरे पर कई भाव आए और गए। स्वाँग की आड़ में हम सभी का मकसद पूरा हो गया था। सभी अति प्रसन्न थे। परन्तु मेरे मन के किसी कोने में ग्लानी का भाव रह -रह कर टीसने लगा...होली की उन छुट्टियों के बाद उन्होंने मुझे अपने कक्ष में बुलाया। क्या हुआ होगा अनुमान लगाया जा सकता है। मस्त झाड़ पड़ी।

"यही सीख रही हो यहाँ पर ,गुरुजनों का निरादर करना, कल जब हमारी उम्र में आओगी तब मालूम होगा..." वगैरह -वगैरह।

आँखों में आँसू लिए मैं ज्यादा कुछ सुन- समझ नहीं सकी। वरन सोचने लगी 'यदि मैं अध्यापिका या प्रधानाचार्य बनी तो मुझे क्या क्या करना चाहिए और क्या नहीं। वैसे आज भी वे मेरी प्रेरणास्रोत जरूर हैं। अनजाने में भी किसी से कितना कुछ सीखा जा सकता है। अपना आकलन करना आ जाता है। बहुत कुछ सीखा उनसे भी।

उस स्वाँग का ज़िक्र जीवन में सिर्फ एक बार और हुआ। जब लगभग बीस वर्ष बाद उनसे दुबारा मुलाकात का अवसर मिला। तब वे मुस्कुरा कर बोलीं...

"एक बात बताओ, तुम जैसी कक्षा में कम बोलने वाली और ज्यादा किसी से मतलब नहीं रखने वाली लड़की कैसे कर गुज़र गई थी वो सब...?"



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